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वर्ष ३, किरण ५]
हरिभद्र-सरि
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___ इसी प्रकार इसी प्राचीन सामग्रीके आधारपर कुछ सिद्धसेन दिवाकरके समान ही ये भी अपने इस मिथ्यानवीन जीवन सामग्रीका भी निर्माण हुअा है; उसमेंसे विश्वासके प्रदर्शन के लिये एक सोपान पंक्तिका (नीसपं० हरगोविन्ददासजी कृत 'श्री हरिभद्र सूरि चरित्र', रनी), एक कुदाला, एक जाल और जम्ब वृक्षकी एक पं० बेचरदास जी द्वारा लिखित 'जैन दर्शनकी विस्तृत लता अपने पास रखते थे । इसका तात्पर्य यही था कि भूमिका', श्री जिनविजयजी लिखित "हरिभद्र सूरिका यदि प्रतिवादी श्राकाशमें उड़ जायगा तो उसे इस समय निर्णय” और प्रोफेसर हरमन जेकोबी द्वारा सोपान-पंक्ति के द्वारा पकड़ लाऊँगा; जलमें प्रविष्ट हो लिखित “समराइच्चकहा कि भूमिका" श्रादि रचनाएँ जायगा तो जाल द्वारा खींच लूंगा, और इसी प्रकार भी मुख्य हैं । इसी सामग्रीके अाधारपर मैं अब श्री हरि- यदि पातालमें प्रवेश कर जायगा तो कुदाले द्वारा खोद भद्र सूरिका चरित्र-निर्णय करनेका प्रयास करता हूँ निकाल लंगा। जम्बलताका रहस्य यह था कि मेरे
और उसपर कुछ निष्कर्षात्मक मीमाँसा भी करनेका सदृश विद्यावान् सम्पूर्ण जम्बूद्वीपमें कोई नहीं है । इसी प्रयास करूंगा।
प्रकार कहा जाता है कि विद्या के भारसे पेट कहीं फट
नहीं जाय, इसीलिये पेटपर एक स्वर्ण निर्मित पट भी प्रारम्भिक-परिचय
बाँधकर रखते थे। साथमें यह भी प्रतिज्ञा थी कि जिसका भारतीय राजनैतिक इतिहासमें मेवाड़का महत्त्वपूर्ण कथित वाक्य नहीं समझ सकूँगा, उसका तत्काल शिष्य और गौरवपूर्ण स्थान है । इसी पवित्र भूमिपर महाराणा हो जाऊँगा। हमीरसिंह, महाराणा लक्ष्मणसिंह, म.राणा संग्रामसिंह एक दिनकी बात है कि हरिभद्र एक सुन्दर शिवि
और महाराणा प्रतापसिंह सदृश शूरवीर एवं नररत्न कामें बैठकर बाजार में जा रहे थे, शिविकाके आगे आगे भामाशाह सरीखे पुरुष पुंगव उत्पन्न हुए हैं। हमारे उनके शिष्य उनकी विरुदावलीके रूपमें “सरस्वती चरित्रनायक हरिभद्रकी जन्ममूमि भी मेवाड़ ही है। कण्ठाभरण, वैयाकरणप्रवण, न्यायविद्याविचक्षण, वाकहा जाता है कि चित्तौड़ ही अापका जन्म स्थान है। दिमतंगजकेसरी, विप्रजननरकेसरी" इत्यादिरूपसे बोलते तत्कालीनं चित्तौड़ नरेश जितारिके हरिभद्र पुरोहित थे। हुए चल रहे थे । इतने में थोड़ी दूरपर “जनतामें घबराइस प्रकार श्राप जातिसे ब्राह्मण और कर्मसे पुरोहित हट और इधर उधर भागा दौड़ी हो रही" का थे । ये चौदह विद्याओं में निपुण और अजातप्रतिवादी दृश्य दिखलाई पड़ा। हरिभद्रके शिष्य और शिविकाथे । इसीलिये गज-प्रतिष्ठा और लोक प्रतिष्ठा दोनों ही वाहक मजदूर भी इधर उधर बिखर गये। इस परिस्थिइन्हें प्राप्त थीं । विद्याबल, राजबल और लोकप्रतिष्ठासे तिको देखकर विप्रवर हरिभद्रने भी बाहर दृष्टि दौड़ाई, हरिभद्रकी वृत्ति अभिमानमय हो चली थी, एवं तदनु- तो क्या देखते हैं कि एक मदोन्मत्त प्रचण्डकाय सार इन्हें यह मिथ्या आत्म-विश्वास सा हो गया था पागल हाथी जनतामें भय उत्पन्न करता हुआ तेजीसे कि मेरे बराबर प्रगाढ़ वैयाकरण, उत्कट नैयायिक, दौड़ा चला आ रहा है । मार्ग में ही शिविका-स्थित हरिप्रखर वादी और गम्भीर विद्वान् इस समय सम्पूर्ण पृथ्वी भद्र शिविकाको छोड़कर प्राण रक्षार्थ समीपके एक जैन पर कोई नहीं है । किंवदन्तियोंमें देखा जाता है कि मन्दिरपर चढ़ गय । तब उन्हें ज्ञात हुआ कि "हस्तिना