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अनेकान्त
गत्वा चलते चलते ये विद्यापीठमें पहुँच ही गये । जैसे आजकल सर्व धर्म सहिष्णुताका अथवा परधर्म प्रति उदारताका अभाव-सा है; वैसा ही उस समय में भी स्वपक्ष को येनकेन प्रकारेण सिद्धि करना और परपक्षका इसी प्रकार खण्डन करना ही धर्म प्रभावना अथवा धर्मरक्षा समझी जाती थी। बौद्ध साधुओं का
चार विचार लोक कल्पनाकी भावनासे रहित हो चला था । महाकारुणिक भगवान बुद्धकी श्रादर्शता श्रौर लोक-कल्याणकी भावना विलुप्त सी हो गई थी । केवल तर्क -बल पर अन्य दर्शनोंको वाद विवाद के क्षेत्रमें पराजितकर अपनी प्रतिष्ठा जनसाधारण में स्थापित करते हुए, अपनी इहलौकिक तृष्णामय श्रावश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने धर्मका आधिपत्य प्रतिष्ठित करना ही बौद्ध भिक्षुओं का एक मात्र उद्देश्य रह गया था । महावीर कालीन वैदिक स्वछंदताकी तरह इस समय भी बौद्ध स्वछंदताका साम्राज्य-सा था । विद्यापीठों की स्थापनाका ध्येय भी यही था और तदनुसार अनेक विक पात्मक शुष्क न्याय विषयोंका ही उनमें विशेष अध्य
यन कराया जाता था।
इस असहिष्णुतामय वातावरण में हंस और परमहंस जैन साधु के वेश में कैसे रह सकते थे ? बौद्ध भिक्षुत्रोंके समान वेश-परिवर्तन करना पड़ा। मुनिहंस और मुनि परमहंससे भिक्षु हंस और भिक्षु परमहंसकी उपाधि धारण करनी पड़ी। यह है विद्या व्यसन और विघ्नमोहकी प्रबल उत्कण्ठाका विकृत परिणाम । इस व्यसन और मोहकी कृपासे ही पवित्र श्राचार विचार छोड़ने पड़े, गुरुकी पुनीत आज्ञा की अवहेलना की और इस प्रकार आत्म- विचारोंकी हत्या करनी पड़ी।
इन्हें बौद्ध भिक्षु समझकर विद्यापीठके कुलपतिने इनके लिये भोजन और अध्ययनकी सर्व सुलभता और
[फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६
पूर्ण व्यवस्था कर दी । अब ये शाँति पूर्वक पूर्ण निर्भयताके साथ क्लिष्ठसे क्लिष्ट दर्शन शास्त्रोंका भी प्रति शीघ्रतासे अध्ययन करने लगे । उपयोगी भागको कंठस्थ भी करने लगे । साथमें जैन दर्शन के प्रतिवाद अंशका भी प्रतिवाद अत्यंत सूक्ष्म रीति से किन्तु मार्मिक रूप में दो एक पृष्ठोंपर इन्होंने लिख लिया ।
परीक्षा और कुलपति - कोप
हंस और परमहंस उन पृष्ठों को गुप्तही रखते थे, किन्तु देवयोग से एक दिन ये पृष्ठ हवासे उड़ गये और एक बौद्ध भिक्षुके हाथ लग गये । पृष्ठों को उठाकर वह कुलपतिके समीप ले गया । कुलपति ध्यानपूर्वक उन पृष्ठों को पढ़ा। बौद्ध दर्शन के प्रति जैन दर्शनकी युक्तियों
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गंभीरता, मौलिकता और अकाट्यतापर कुलपति मुग्ध हो उठा और इस बातार श्राश्वर्यजनक प्रसन्नता हुई कि मेरे विद्यापीठ में ऐसे प्रखर बुद्धिशील विद्वान् विद्यार्थी भी हैं । किन्तु थोड़ी ही देर में संप्रदायान्धताकी मादकता ने मस्तिष्क में विकृति की लहर दौड़ा दी। कुलपतिको यह जाननेकी उत्कण्ठा हुई कि इन पन्द्रहहजार छात्रों में से वे कौनसे छात्र हैं; जिन्होंने कि इतनी प्रखर बुद्धि का इतना सुन्दर परिचय दिया है । निश्चय ही वे जैन हैं; किन्तु ज्ञात होता है कि वे यहाँपर बौद्ध भिक्षुके रूप में रहते हैं ।
निष्करुण परीक्षाका दारुण समय उपस्थित हुआ और यह युक्ति निर्धारित की गई कि एक जिन-प्रतिमा मार्ग में रक्खी जाय और उसपर विद्यापीठका प्रत्येक ब्रह्मचारी पाँव रखते हुए आगे बढ़े। इस रीति अनुसार बौद्ध छात्र तो निर्भयता पूर्वक प्रतिमापर पैर रखते हुए आगे बढ़ गये । किन्तु जब हंस और परमहंसका क्रम या तो इन्होंने भी एक प्रतियुक्ति सोची। वह यह थी