Book Title: Anekant 1940 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ हरिभद्र - सूरि वर्ष ३, किरण 27 वता थी । दोनों वादी प्रतिवादी भी नियमानुसार शास्त्रार्थ के लिये तैयार हो गये और वाद-विवाद प्रारंभ हुआ । प्रथम बौद्ध कुलपतिने पूर्व पक्ष के रूप में "क्षणवाद" का प्रबल युक्तियों, हेतुनों और अनुमानों द्वारा पूर्ण समर्थन किया और जेयरूप देनेका भरपूर प्रयास किया । तदन्तर हरिभद्रसूरि उठे और मंगलाचरण करने एवं राजा तथा सभाको आशीर्वाद देनेके बाद शांतिपूर्वक किन्तु प्रखर तर्कों द्वारा क्रमशः क्षणवाद का खंडन करते हुए कुलपतिकी सारी शब्दाडम्बरमय तर्कों को इस प्रकार अस्त व्यस्त कर दिया, जिस प्रकार कि वायु मेवोंके प्रवाहको कर देता है । अन्त में " वस्तु स्थिति नित्यानित्यात्मक है" इसी सिद्धान्तको सर्वोपरि ठहराया । अपने पक्षको प्रबल रीतिसे सिद्ध कर दिया । अन्ततोगत्वा प्रतिपक्षी इस सम्बन्ध में अपने आपको अनाथ र असहाय सा अनुभव करने लगा; एवं “मौनं स्वीकृति-लक्षणं” के अनुसार पराजय स्वीकार कर ली । सम्पूर्ण सभा स्तब्ध और शांत थी । " कुलपतिः पराभूतः” सभासदों के इन शब्दों द्वारा वह नीरव शांति भंग हुई | कुलपति उठा और पूर्व प्रतिज्ञानुसार उसने गरम २ तेलके कड़ाहेमें गिरकर मृत्युका आलिंगन कर लिया । इस प्रकार जब पांच छः के लगभग बौद्धोंका तेलके कड़ाहे में गिर कर होमं हो गया, तब सम्पूर्ण बौद्ध संसारमें हाहाकार मच गया। बौद्ध शासन - रक्षिका तारादेवी बुलाई गई; उसने यही कहा कि हंस और परमहंसकी हत्याका ही यह परिणाम है; अतः इसीमें कल्याण है कि सब बौद्ध यहांसे चले जाँय | हरिभद्र सूरिका क्रोध अभी तक शाँत नहीं हुआ था; वे क्रोधसे प्रज्वलित हो रहे थे और और भी बौद्धोंका ३३५ नाश करना चाहते थे । किन्तु कहा जाता है कि जब यह घटना आचार्य जिनमेंट सूरिजीको ज्ञात हुई तो उन्होंने क्रोधको शांत करने के लिये अपने दो शिष्यों के साथ तीन प्राकृत गाथाएँ भेजीं। कहा जाता है कि वे गाथाएँ इस प्रकार हैं: - गुण - लेण श्रग्गिसमा, सीहाऽणन्दा य तह पिया उत्ता । सिहि जालिणि माइसुया धणधणसिरिमो य पइ-भज्जा ॥ जय विजयाय सहोयर धरणो लच्छी य तह पई भज्जा । सेणविसेणापित्तियउत्ता जम्मम्मि सत्तमए ॥ २ ॥ गुणचंद - वाणमंतर समराइच्च - गिरिसेणपाणो उ । एक्कस्स तो मोक्खो बीयस्स भणन्त संसारो ॥ ३ ॥ इन गाथाओं का यही तात्पर्य है कि क्रोधके प्रतापसे दो जीव नौ जन्म तक साथमें रहने पर भी अंत में एक को तो मुक्ति प्राप्त होती है और दूसरेका अनन्त संसार बढ़ जाता है । अतः क्रोध के बराबर दूसरा कोई शत्रु नहीं है । इसलिये कषायगणना के प्रारम्भमें ही इसका नाम निर्देष है । गाथाओं का मनन करते ही हरिभद्रसूरिका क्रोध तत्काल शाँत होगया; उन्हें अपने इस हिंसाकाँडसे भयंकर पश्चात्ताप हुआ और वहाँसे वे तत्काल चित्रकूटकी ओर मुड़े । तीव्रगति से चलते हुए गुरुजी के समीप पहुँचे और चरणों में गिरकर प्रायश्चित्त लेते हुए पापों की श्रालोचना की । उन तीन गाथाओं के आधारसे ही बाद में हरिभद्रसूरिने प्रशमरसपूर्ण "समराइच्च कहा" नामक कथा - ग्रंथ की रचना की; जोकि कथा-साहित्य में विशिष्ट गौरव पूर्ण ग्रंथ-रत्न है । राजशेखरसूरिने अपने प्रबंधकोश में शास्त्रार्थ होने की बात न लिखकर केवल मंत्र बलद्वारा ही बौद्धोंका नाश करने के संकल्पकी बात लिखी है । इसी प्रकार सम्वत् १८३४ में हुये अमृतधर्म गणि

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