Book Title: Anekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ १० अनेकान्त वर्ष १, किरण ताको निम्न बातोंकी शिक्षा दी है: दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं, १ निर्भय-निवर रहकर शांति के साथ जीना तथा नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । दूसरोंको जीने देना, अधष्यमन्यैरखिलैः प्रवादै२ राग-द्वेष-अहंकार तथा अन्याय पर विजय प्राप्त जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥ करना और अनुचित भेद-भावको त्यागना, -युक्तयनशासन । ___३ सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करके अथवा इस वाक्यमें 'दया'को सबसे पहला स्थान दिया नय-प्रमाणका सहारा लेकर सत्यका निर्णय तथा विरो- गया है और वह ठीक ही है । जब तक दया अथवा अहिंसाकी भावना नहीं तब तक मंयममें प्रवृत्ति नहीं धका परिहार करना, होती, जब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं तबतक त्याग नहीं ४ 'अपना उत्थान और पतन अपने हाथमें हैं' बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं ऐसा समझते हुए, स्वावलम्बी बनकर अपना हित बनती । पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोत्तर धर्मका निमित्त कारण और उत्कर्प साधना तथा दूसरोंके हित साधनमें मदद है। इस लिये धर्ममें दयाको पहला स्थान प्राप्त है । और इसीसे 'धर्मस्य मूलं दया' आदि वाक्यों द्वारा करना। साथ ही, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक कहनकी भी यही वजह है । और उसे परम धर्म ही दयाको धर्मका मूल कहा गया है । अहिंसाको परम धर्म चारित्रको-- तीनोंक समुच्चयको--मोक्षकी प्राप्तिका नहीं किन्तु 'परम ब्रह्म' भी कहा गया है; जैसा कि एक उपाय अथवा मार्ग बतलाया है । ये सब सिद्धांत स्वामी समन्तभद्रकं निम्न वाक्यसे प्रकट है:इतने गहन, विशाल तथा महान हैं और इनकी विम्तत "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।" व्याख्याओं तथा गम्भीर विवंचनाओंसे इतने जैन -स्वयंभस्तोत्र । ग्रन्थ भरे हुए हैं कि इनके म्वम्पादि-विपयमें यहाँ । ___ और इस लिये जो परम ब्रह्मकी आराधना करना चाहता है उस अहिंसाकी उपासना करनी चाहिय---- कोई चलतीमी बात कहना इनके गौरवको घटाने गग-द्वपकी निवृनि, दया, परोपकार अथवा लोकअथवा इनके प्रति कुछ अन्याय करने जमा होगा । संवा कामों में लगना चाहिये । मनुष्यमें जबतक और इस लिये इस छोटम निबन्धमें इनके स्वरूपादि हिंमक वृत्ति बनी रहती है तबतक श्रात्मगुणोंका घात का न लिखा जाना क्षमा किये जानके योग्य है। इन हानक साथ माथ 'पापाः सर्वत्र शंकिता.' की नीतिक पर तो अलग ही विम्तन निवन्धोंके लिये जानेकी अनुमार उसमें भयका या प्रतिहिंसाकी आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहाँ भयका सद्भाव वहाँ वीरत्व जरूरत है । हां, स्वामी ममन्नभद्रके निम्न वाक्यानुसार नहीं--सम्यत्तव नहीं * और जहां वीरत्व नहींइतना जरूर बतलाना होगा कि महावीर भगवान पी मायगटपिको सप्त प्रकारके भयोंसे रहित बतलाया है का शासन नय-प्रमाणक द्वाग वस्तुतत्वको बिलकुल और भयको मिथ्यात्वका चिन्ह तथा स्वानुभक्की क्षतिका परिणाम स्पष्ट करने वाला और संपूर्ण प्रवादियोंक द्वारा अबा- सूचित किया है। यथाःध्य होनेके साथ साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), "नापि स्पृष्टो सुदृष्टिगः सप्तभिर्भयैर्मनाक् ॥" त्याग और ममाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चारोंकी तत्प- "ततो भीत्याऽनुमेयोऽस्ति मिथ्याभवो जिनागमात् । रताको लिये हुए है, और यही सब उसकी विशेषता सा च भीतिरवश्यं स्याद्धतोः स्वानुभवक्षतेः ॥" है अथवा इसी लिये वह अद्वितीय है: -पंचाध्यायी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 660