________________
बन चुका है; हवा भी उस राग से भीग उठती है; वृक्षों की डालियाँ-पत्तियाँ, यहाँ तक कि झरनों तक में भी अपनी बाँसुरी को प्रतिध्वनित होते हुए पाओगे । यह हर प्रतिध्वनि हम पर ही बादलों की रिमझिम फुहारों की तरह बरसेगी । तब हमारा रोम-रोम पुलकित हो उठेगा, हम हर रूप में उसी स्वर-लहरी को आत्मसात होता हुआ पाएँगे।
वहीं हम किसी सूने जंगल में बेसुरी आवाज करें, कुएँ में मुँह डालकर हो-हल्ला करें, हम सचमुच दो-पाँच मिनट में ही पागलों-सी हरकत करने लगेंगे। कुएँ की जो प्रतिध्वनि होगी, वह हमें भूतों की आवाज महसूस होगी । हम भयभीत हो उठेंगे । जंगल की प्रतिध्वनि से हमें ऐसे लगेगा कि मानों कहीं बादल गरजा हो या पहाड़ फूटा हो । हम हक्के-बक्के हो उठेंगे।
चाहे व्यक्ति का यह पागलपन रहा या सुर-संसार की संरचना—दोनों व्यक्ति के अपने ही परिणाम रहे । क्या हम इसी नियम के आधार पर यह नहीं मान सकते कि व्यक्ति के क्रोध के बदले में क्रोध ही लौट कर आता है, वहीं प्रेम और क्षमा के बदले में वैसा ही सद्भाव? भला धरती पर गुस्से और गालियों के बदले किसे प्रेम का सुकून मिला है । कोई महावीर जैसे संयमी और जीसस जैसे क्षमाशील हों, तो यह अपवाद ही कहलाएगा। नियम तो नियम होता है, उसमें अपवाद लागू नहीं होता । यह प्रकृति का सर्वसाधारण नियम है कि फलता वही है, जो बीज में होता है। औरों के लिए अच्छा बनना अपने लिए और बेहतर बनने की कला है। बीज बोएँ बेहतर
हम बीज बोते वक्त यह ध्यान नहीं रखते कि वह किन परिणामों को लिए हुए है। हम बिन सोचे बीज बो डालते हैं । अपने बोये हुए को भोगना तो सुखद लगता है, लेकिन उसे काटना दुःखद और दुष्कर । फूलों को भोगना कितना अच्छा लगता है, पर क्या काँटों को काटना इतना सहज है ? आदमी का जीवन इतना विचित्र है कि उसमें गुलाब के फूल कम खिलते हैं और थोर के काँटे ज्यादा और जल्दी उग आते हैं । यह मानकर चलें कि जीवन में अगर बुराई है, तब भी और अच्छाई है तब भी, दोनों का जनक और प्रबंधक व्यक्ति स्वयं ही है । हम चाहें तो अच्छे फलों को पाने के लिए अच्छे बीजों को बो सकते हैं। हमें सचमुच जीवन और व्यवहार में वह बोना चाहिए कि जिसे काटते और भोगते वक्त हमें घुटन, ग्लानि और प्रायश्चित न करना पड़े।
हम अगर अपनी ओर से अच्छा बो रहे हैं, इसके बावजूद हमे गलत परिणाम बोएँ वही जो फलदायी हो
१५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org