Book Title: Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ अगर पापियों के लिए ईश्वर के द्वार बंद कर दिए गये, तो पुजारी, ध्यान रखो पापी और पाप करते जाएँगे। हम पापियों को तुम्हारी सहानुभूति की ज़रूरत है। हमें निष्पाप होने में तुम हमारी मदद करो। सहानुभूति में पात्रता का विचार न हो ___ पाप तो पुण्य की ही पूर्व अवस्था है । आखिर कौन पुण्यात्मा ऐसा है, जो पहले कभी पापी न रहा हो ! अज्ञान-अवस्था में पाप हो जाया करते हैं। जीवन का होश आ जाए तो पाप की धारा बदल जाती है । कल तक जो कदम गलत रास्तों पर चलते थे, वे उनसे विमुख हो जाते हैं । तब उनके जो कदम होते हैं, वे ही पुण्य कहलाते हैं । निश्चय ही आज जो पापी हैं, वे हमारे पुण्य की संगत पाकर बहुत कुछ मुमकिन है कि वे पापमुक्त हो जाएँ । सहानुभूति स्वयं में पुण्य है और गैरों के प्रति सहानुभूति रखना पुण्यात्माओं का ही कार्य है। सच्चा पुण्यात्मा सबसे सहानुभूति रखता है । वह औरों से सहानुभूति प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं रखता । वह यह भलीभांति जानता है कि जो आज दुःखी है, मुझे उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मैं भी कभी दुःखी था, पर जैसे मैं अपने दुःखों से मुक्त हो गया, वैसे ही यह भी हो जाएगा; मैं भी कभी बुरा था, पर जैसे मैं अपनी बुराइयों से छूट गया, वैसे ही कभी यह भी छुट जाएगा। आखिर यही अकेला कष्ट नहीं भोग रहा है, मैंने भी कष्टों के काँटों को सहन किया है, पर जैसे आज मेरे जीवन में सुख-शांति और आनंद के फूल खिल आए हैं, ऐसे ही कभी इसके जीवन में भी खिल आएँगे। फिर दुनिया में कौन भला, कौन बरा ! सब नियति का खेल है । कम-से-कम मैं ऐसा दुष्पात्र न बनूँ कि कोई और मेरी कोमल सहानुभूति से वंचित रहे । अगर ऐसा हुआ तो किसी एक पात्र के सामने मेरी अपात्रता सिद्ध हो जाएगी। महावीर का यह वचन हमें सदा इस हेतु प्रेरित और प्रोत्साहित करता रहेगा कि गृहस्थ तो देने मात्र से ही धन्य हो जाता है, उसमें पात्र-अपात्र का विचार क्या ! ईश्वर करे हम स्वयं सुख से जीएँ और औरों के सुख से जीने के अधिकार की रक्षा करें । प्रेम, सेवा और सहानुभूति को हम अपना धर्म माने । प्रेम से बढ़कर कोई धर्म नहीं, प्रेम से बढ़कर कोई प्रसाद नहीं । हम स्वार्थ के गलियारे से बाहर आएँ, औरों के द्वारा किये जाने क्षुद्र व्यवहार के प्रति भी करुणा रखें । मेरे द्वारा औरों का भला हो, यह सजगता बरकरार रहे। प्रेम से बढ़कर प्रार्थना क्या ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122