Book Title: Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 113
________________ साधक द्रष्टा के करीब पहुंच रहा है । साधक पृष्ठ मस्तिष्क की ओर ऊर्ध्वमुखी हो । वहाँ व्याप्त सूक्ष्म ऊर्जा तरंग को जाने, अनुभव करे । कर्णेन्द्रिय में व्याप्त श्रवण-शक्ति पर साधक की सजगता.... । चक्षु-अंग में व्याप्त दर्शन-शक्ति पर साधक की सजगता.... । अग्र मस्तिष्क पर दोनों भौंहों के मध्य अन्तर्दृष्टि-केंद्र पर साधक जागे और प्रज्ञालोक का अनुभव करे। तीसरा चरण: चित्त-दर्शन : संस्कार-बोध समय : २० मिनट साधक स्वयं के चित्त की स्थिति का अवलोकन करे । संवेदनाओं से उपरत हो जाने के कारण चित्त का गण-धर्म शांत हो चुका है या अभी भी विकार, तनाव या वृत्ति-संस्कार हावी हैं ? चित्त की अन्तःस्थिति का निरीक्षण....चित्त की जैसी भी स्थिति है, उसका अवलोकन....चित्त का, कर्मास्रव का, अचेतन मन की पर्यायों का आत्मभावे निरीक्षण । साधक अपनी ध्यान-चेतना को, स्वयं की उदात्त ऊर्जा को चित्त की ओर केंद्रित रखे । चित्त के विकार, कषाय, राग-द्वेष की ग्रंथियाँ स्वतः शिथिल होंगी । स्व-चित्त के प्रति स्वयं का सम्यक् जागरण ही ध्यान की मूल आत्मा है। हम मस्तिष्क के ऊर्ध्व आकाश में, ज्ञान-प्रदेश में ध्यानस्थ हों । ध्यान की पराचेतना को स्वयं की बुद्धि एवं अतिमनस् तत्त्व के साथ एकाकार होने दें; स्वयं को आत्मविश्वास और असाधारण चैतन्य-शक्ति से आपूरित होने दें। चौथा चरण: शून्य दर्शन : आत्मबोध समय : कालातीत साधक स्वयं के भीतर साकार हो चुके शांत, सौम्य स्वरूप में विश्राम ले; स्वयं में स्वयं का उपराम, स्वयं में स्वयं का बोध....काया के लोक में समाहित आत्मस्वरूप, आत्मचेतना, आत्मप्रकाश का अनुभव, आनंद, अन्तर्लीनता, संबुद्ध-दशा। यह विधि नौ माह तक की जाए । नौ माह नहीं, तो तीन माह की जाए। तीन माह नहीं, तो एक माह ही सही । एक माह भी ज्यादा लगता हो, तो पंद्रह दिन । वह भी ज्यादा लगते हों, तो सात दिन । यदि इससे भी कम करना हो, तो हम इस ध्यान-विधि की सात बैठक लगाकर इसके मंगल परिणामों को जीवन में आत्मसात कर सकते हैं । चित्त के १०२ ऐसे जिएँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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