Book Title: Aise Jiye
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 55
________________ शब्द शिष्य से ही बना है । तुम अपने आपको चाहे सिक्ख कहो या शिष्य, दोनों का अर्थ और भाव एक ही है । जो हर समय कुछ-न-कुछ सीखने को, नया जानने को, नया करने को उत्सुक और संप्रेरित रहता है, वही व्यक्ति शिष्य है और वही व्यक्ति सिक्ख । जिज्ञासा-भाव न छूटे कुछ-न-कुछ नया सीखने और जानने की ललक तो व्यक्ति में हर समय रहनी ही चाहिए । ऐसा नही कि एम. ए., बी. ए. कर लिया, कहीं नौकरी लग गई और हमने शिक्षा और ज्ञान की इतिश्री मान ली। हम विद्यालयों-महाविद्यालयों में जो अध्ययन करते हैं, वह तो एक तयशुदा-आरोपित वस्तु है, किंतु महाविद्यालयीय अध्ययन से मुक्त हो जाने के बाद विश्व का विराट क्षितिज खुला है । हम अपनी मौलिक दृष्टि और रुचि के अनुरूप ज्ञान-सामग्री की तलाश कर सकते हैं और किसी नई मंजिल की स्थापना के लिए नये-नये आयामों की तलाश कर सकते हैं। विद्याभ्यास का वह पहला चरण शिक्षा के तहत आ जाएगा, किंतु यह दूसरा चरण स्वाध्याय, चिंतन और अनुसंधान के अंतर्गत । मैं मानता हूँ कि शिक्षा जीवन का अनिवार्य चरण है, किंतु शिक्षा और मनुष्य के संबंध पर जब विचार करते हैं तो यह जाहिर होता है कि शिक्षा वह होनी चाहिए, जो व्यक्ति के मौलिक और सहज विकास में सहायक हो । इतिहास की पुरानी किताबों में शिक्षा की सार्थकता के जो स्वरूप देखने को मिलते हैं, वे यह साफ़ जाहिर करते हैं कि तब शिक्षा का उद्देश्य रोजी-रोटी नहीं था, वरन् जीवन के आंतरिक और व्यावहारिक स्वरूप को परिपक्व और संस्कारित बनाना था । तब लोगों के लिए शिक्षा जीने की कला थी । वे पढ़े हुए को जीवन में आचरित हुआ देखना पसंद करते थे । उनकी कथनी उनके ज्ञान से उद्भूत होती थी । कथनी की अभिव्यक्ति से पहले व्यक्ति इस बात के लिए सजग रहता था कि उसकी कथनी, उसकी करनी के विरुद्ध न हो । माना कि अपवाद तो तब भी होते थे, लेकिन आज की शिक्षा बहुत संकुचित हो चुकी है । 1 I शिक्षित वर्ग अशिक्षित क्यों ? I आज हर विद्यार्थी का लक्ष्य पाठ्यक्रम को उत्तीर्ण करना, उपाधि हासिल करना और रोजी-रोटी के लिए उस उपाधि का उपयोग करना ही रह गया है । यही कारण है कि हमारे दैनंदनीय जीवन से स्वाध्याय का विलोप हो गया है, हम किसी समाचार-पत्र अथवा मनोरंजन से जुड़ी पत्र-पत्रिका भले ही देख-पढ़ लेते हों, लेकिन इसके अलावा पठन-मनन के प्रयास देखने को नहीं मिलते । व्यक्ति के ज्ञान में नित्य नूतनता और ऐसे जिएँ ४४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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