Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आधुनिक कालके अनेक विदेशी पुरातत्त्व वेत्ताओंने मथुराके कंकाली टीलाकी खुदाई की थी। उसमें जैनधर्मसे सम्बन्धित बड़ी महत्त्वपूर्ण वास्तु-सामग्री प्राप्त हुई। उस सामग्री में कुषाण कालीन एक मूर्तिकी अभिलिखित पीठिका है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय ( संख्या जे० २० ) में है। उस पीठिकाके अभिलेखसे ज्ञात होता है कि कुषाण सं०७१ ( सन् १५७ ई० ) में कोट्टिय गणकी वैर शाखाके आचार्य वृद्धहस्तिके आदेशसे श्राविका दिनाने उक्त अहंत प्रतिमाको देव निर्मित 'वोद्व स्तूप में प्रतिष्ठापित किया था ।
इस अभिलेखसे सिद्ध होता है कि कुवेरा देवोके स्तूपका नाम 'वोद्व स्तुप' था और यह मथुराके उस स्थलपर बनाया गया था, जिसे अब कंकाली टोला कहते हैं। दूसरी शताब्दी में ही वह स्तूप इतना प्राचीन हो गया था कि उसके निर्माण-काल और निर्माताके सम्बन्धमें किसी को कुछ ज्ञान नहीं था। फलतः उस कालमें उपे देव निर्मित स्तूप कहा जाने लगा था।
उक्त स्तूपके सम्बन्धमें मान्यता है कि पहले एक मूल स्तुप था, बादमें पांच बन गये। कालान्तरमें अनेक छोटे-बड़े स्तुप बनाये गये, जिनकी संख्या ५०० से भी अधिक हो गयी थी। उन स्तूपोंके साथ-साथ जैनधर्म के अनेक देवालय और चैत्य भी वहाँ पर समय-समय पर निर्मित होते रहे थे। उन स्तूपों और देवालयोंमें विविध तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई थीं। उन सबके कारण वह स्थल मथुरा मंडलमें ही नहीं, वरन् समस्त भारतवर्ष में जैनधर्मका सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र हो गया था। इसका प्रमाण वहाँके उत्खननमें प्राप्त सैकड़ों मूर्तियाँ और वास्तु-कलावशेष है । जैनधर्मसे सम्बन्धित इतनी अधिक और इतने महत्त्वकी पुरातात्त्विक सामग्री किसी अन्य स्थानसे प्राप्त नहीं हुई है। जैन मूर्तियों के साथ ही साथ कुछ मूर्तियाँ बौद्ध और हिन्दू धर्मोसे सम्बन्धित भी मिली हैं, जो उस कालके जैनियोंकी धार्मिक उदारता और सहिष्णुताकी सूचक हैं । ऐसा जान पड़ता है, उस स्थलके भारतव्यापी महत्त्वके कारण अन्य धर्मवालोंने भी अपने देवालय वहाँ बनाये थे।
जैनधर्ममें तीर्थ-स्थलोंके दो भेद माने गये हैं, जिन्हें १-सिद्ध क्षेत्र और २-अतिशय क्षेत्र कहा गया है। किसी तीर्थंकर अथवा महात्माके सिद्ध पद या निर्वाण-प्राप्तिके स्थलको 'सिद्ध क्षेत्र' कहते हैं, और किसी देवताकी अतिशयता अथवा मन्दिरोंकी बहुलताका स्थान 'अतिशय क्षेत्र' कहलाता है। इस प्रकारके भेद दिगम्बर सम्प्रदायके तीर्थों में ही माने जाते हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ये भेद नहीं होते हैं । दिगम्बर सम्प्रदायके उक्त तीर्थ-भेदके अनुसार मथुरा सिद्ध क्षेत्र भी है और अतिशय क्षेत्र भी। 'सिद्ध क्षेत्र' इसलिये कि यहाँके 'चौरासी' नामक स्थल पर जम्बू स्वामीने सिद्ध पद एवं निर्वाण प्राप्त किया था। यह 'अतिशय क्षेत्र इसलिये है कि यहाँ के कंकाली टीलेके जैन केन्द्र में देव निर्मित स्तूप के साथ-साथ स्तूपों, देवालयों और चैत्योंकी अनुपम अतिशयता थी।
कंकाली टीलाके उत्खननमें सर्वश्री कनिंघम, हाडिंग, ग्राउस, बर्गेस और फ्यूर जैसे विख्यात विदेशी पुरातत्त्वज्ञोंने योग दिया था । वहाँसे जो महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई थी, उसमेंसे अधिकांश लखनऊ संग्राहलयमें है । उसका अल्प भाग मथुरा संग्रहालयमें है, और शेष भाग भारत तथा विदेशोंमें बिखरा हुआ है । इसका परिचयात्मक विवरण डॉ० विसेण्ट स्मिथकी पुस्तक, लखनऊ संग्रहालयके विवरण और डॉ० वोगल कृत मथुरा संग्रहालयके सूचीपत्रसे जाना जा सकता है ।
कंकाली टीला प्रायः 1500 वर्ग फीटका एक ऊबड़-खाबड़ स्थल है। इसके एक किनारे पर कंकाली नामकी देवीका एक छोटासा मंदिर बना हुआ है, जिसके नामसे इस समय यह स्थल प्रसिद्ध है। इसकी खुदाई में 47 फीट व्यासका ईटोंका एक स्तुप और दो जैन देवालयोंके अवशेष मिले है। इसमेंसे जो सैकड़ों
२६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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