Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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रही और महाकवि पुष्पदन्तने महापुराण लिखकर विद्वानोंका ध्यान आकृष्ट किया। वैसे प्राकृत साहित्यकी सभी मुख्य प्रवृत्तियां इस साहित्यको प्राप्त हुई हैं। इसलिए एक लम्बे समय तक अपभ्रंश कृतियाँ भी प्राकृत कृतियाँ समझ ली गयीं। प्राकृत भाषाका जिस प्रकार कथा साहित्य विशाल एवं समृद्ध है तथा लोक रुचिकारी है उसी प्रकार अपभ्रंशका कथा साहित्य भी अत्यधिक समृद्ध है। उसमें लोकरुचिके सभी तत्त्व विद्यमान हैं। यह साहित्य प्रेमाख्यानक, व्रतमाहात्म्यमूलक, उपदेशात्मक एवं चरितमूलक है। विलासवईकहा, भविसयत्तकहा, जिणयत्तकहा, सिरिवालचरित, धम्मपरिक्खा, पुण्णासवकहा, सत्तवसणकहा, सिद्ध
। आदिके रूपोंसे इसका कथा साहित्य अत्यधिक समद्ध ही नहीं है किन्तु उसमें भारतीय संस्कृतिकी प्रमुख विधाओंका अच्छा दर्शन होता है। उसके साहित्यकी कितनी ही विधाओंको सुरक्षित रखा है और उनका पूर्णतया प्रतिपालन भी किया गया है। इन कथाकृतियोंसे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियोंके खूब दर्शन होते हैं । इनमें वैभवके साथ-साथ देशमें व्याप्त निर्धनता एवं पराधीनताके भी दर्शन होते हैं। कथाओंके विवरणके अतिरिक्त काव्यात्मक वर्णन, प्रकृति चित्रण, रसात्मक व्यञ्जना एवं मनोवैज्ञानिकताकी उपलब्धि इन कथा काव्योंकी प्रमुख विशेषता है। लोक पक्षका सबल जीवन-दर्शन भी इन कथा-काव्योंमें खूब मिलता है । सामाजिक स्थिति
ये कथा-काव्य तत्कालीन समाजकी सजीव मति उपस्थित करते हैं। इनमें सामाजिक स्थिति, विबाह, सयुक्त परिवार, वर्ण, जाति, भोजन, आभूषण, धार्मिक आचरण आदिके सम्बन्धमें रोचक बातोंका वर्णन मिलता है। ये कथा-काव्य इस दृष्टिसे भारतीय संस्कृतिके मूल पोषक रहे हैं । और सारे देशको एकात्मकतामें बांधने में समर्थ रहे हैं। यहाँ अब मैं आपके समक्ष लोकतत्त्वों के बारे में विस्तृत प्रकाश डाल रहा हूँ।
देशमें कितनी ही जातियाँ और उपजातियाँ थीं। जिणदत्त चौपाईमें रल्ह कविने २४ प्रकारकी नकार एवं २४ प्रकारकी मकार नामावलि जातियोंके नाम गिनाये हैं। ये सभी उस समय बसन्तपुरमें रहती थीं। कुछ ऐसी जातियाँ भी थीं जो अशान्ति, कलह, चोरी आदि कार्योंमें विशेष रुचि लेती थीं। समाजमें जुआ खेलनेका काफी प्रचार था। नगरोंमें जुआरी होते थे तथा वेश्याएँ होती थीं। कभी-कभी भद्र व्यक्ति भी अपनी सन्तानको गार्हस्थ जीवन में उतारने के पहिले ऐसे स्थानोंपर भेजा करते थे। जुआ खेलनेको समाजविरोधी नहीं समझा जाता था । जिणदत्त एक ही बारमें ११ करोडका दाव हार गया था।
खेलत भई जिणदत्तहि हारि, जूवारिन्हु जीति पच्चारि ।
भणइ रल्हु हम नाहीं खोहि, हारिउ दव्वु एगारह कोडि ॥ इन कथा-काव्योंके पढ़नेसे ज्ञात होता है कि उस युगमें भी वैवाहिक रीति-रिवाज आजकी ही भांति समाजमें प्रचलित थे। विवाहके लिए मण्डप गाड़े जाते थे। रंगावली पूरी जाती थी। मंगल कलश और बन्दनवार सजाये जाते थे। मंगल वाद्योंके साथ भाँवरें पड़ती थीं और लोगोंको भोज दिया जाता था। बारात खूब सज-धजके साथ जाती थी। भविसयत्तकहामें धनवइ सेठके विवाहका जो वर्णन किया गया है उसमें लोकजीवनका यथार्थ चित्र मिलता है। विवाहमें दहेज देनेकी प्रथा थी लेकिन कभी-कभी वरपक्षवाले दहेजको अस्वीकार भी कर दिया करते थे। भविसयत्तकहामें सवर्ण मणि और रत्नोंका लोभ छोड़कर धनदत्तकी सुन्दर पुत्रीको ही सबसे अच्छा उपहार समझा जाता था लेकिन जिनदत्तको चारों विवाहोंमें इतना अधिक दहेज मिला था कि उससे सम्हाले भी नहीं सम्हलाता था। कोटि भट श्रीपालको भी मैना सुन्दरीके साथ विवाहके अतिरिक्त अन्य विवाहोंमें खूब धन-दौलत प्राप्त हुआ था। कभी-कभी राजा अपनी पुत्रीके विवाहमें वरको अपना आधा राज्य भी दिया करते थे।
१५६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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