Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पर स्थित होकर देखनेसे बड़ी वस्तु भी छोटी प्रतोत होती है, तथा अत्यन्त निकट होनेसे दिखाई देने योग्य
वस्तु (अक्षर इत्यादि) भी दिखाई नहीं देती। प्रेमीको कुरूप प्रिय भी सुम्दर प्रतीत होने लगता है, ज्वरादित व्यक्तिको मीठी वस्तु भी कड़वी लगती है। ऐसी स्थितिमें यही कहा जा सकता है कि हमारा सारा ज्ञान सापेक्ष ही है । अतः यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यक्त जगत् जैसा हमें प्रतीत हो रहा है वह वस्तुतः वैसा ही है । यदि हमारे इन्द्रियोंका निर्माण अन्य प्रकारका होता तो सम्भव है जगत् की प्रतीति भी हमें कुछ भिन्न प्रकार की होती और यदि मानव जातिके सौभाग्यवश मनुष्य में किसी छठी ज्ञानेन्द्रियका भी विकास हो जाय अथवा किसी कारणसे वर्तमान पंच इन्द्रियोंका अलौकिक विकास या दिव्यीकरण हो जाय तो सम्भव है बहुत सी सत्ताएं जिसका हमें किंचित् मात्र भी अनुमान नहीं है, प्रत्यक्ष होकर मनुष्य की सारी ज्ञानधाराको ही परिवर्तित कर दें।
निरपेक्ष पारमार्थिक तत्त्वज्ञानका स्वरूप
अतएव प्रतीत होने वाला रूप वस्तुका यथार्थ रूप नहीं है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंको यदि एक पदार्थ की समान रूपमें भी प्रतीति होती है तो उसका कारण केवल यही है कि उन भिन्न भिन्न व्यक्तियों की उन उन ग्राहक इन्द्रियोंमें समानता है और फिर भी किसी भी पदार्थके विषयमें किन्हीं भी दो व्यक्तियों की प्रतीति शतप्रतिशत एक समान ही है, यह कभी भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। पुनः एक ही वस्तु ज्ञानविशेष तथा परिस्थिति विशेषके कारण प्रिय, अप्रिय, सुखरूप, दुःखरूप, सुन्दर, कुरूप, छोटी बड़ी इत्यादि भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होती है। इसलिए भिन्न-भिन्न प्रतीत होने वाला रूप वस्तुका यथार्थ रूप नहीं है, वस्तुतत्त्व नहीं है । अतः कोई भी इन्द्रियजन्य प्रतीति तत्त्वज्ञान नहीं कही जा सकती । तत्त्व अर्थात् वस्तुके यथार्थ स्वरूपमें तो कोई भी भेद होना सम्भव नहीं है । अतः तत्त्वज्ञानमें भी भेद नहीं होना चाहिए, वह ज्ञान पारमार्थिक तथा निरपेक्ष होना चाहिए । इसलिए जितनी भी सभेद प्रतीति है वह सभी अयथार्थ है, मिथ्या है। तत्व तो सदैव ही भेदरहित और एकरस बना रहेगा। जो तत्त्व है एवं वस्तुतः सत् है वह तो अद्वैत और अद्वयके अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता। विवर्तमान है, वह वस्तुका सत्का, पारमार्थिक स्वरूप नहीं है। वाचारम्भणमात्र है ।' विकारों की प्रकृति अर्थात् मूल पारमार्थिक वह स्वरूपतः अविकार्य है। वह मूलतत्त्व, वह पारमार्थिक सत्ता, है । परन्तु है वह मूलतत्त्व एक और अखण्ड । इस अद्वैत तत्त्व की मानव की जीवनयात्राका चरम लक्ष्य है ।
सभी भेद केवल प्रतीतिमात्र है- सत्का सभी विकार नाशवान् है, अतएव असत् है सत्ता ही यथार्थ सत् और शाश्वत है, और चेतन है अथवा जड़ यह एक अलग प्रश्न बाहर भीतर सर्वत्र यथार्थ उपलब्धि ही
मानव जीवन की साध - अद्वैत तत्त्वका साक्षात्कार
अनादिकाल से मानव हृदय उस अद्वैत तत्त्वकी प्राप्तिके लिए व्याकुल होता चला आ रहा है, मानव उसी अनादि तथा अनन्त तत्त्वकी खोजके लिए अनादिकालसे अपनी अनन्त यात्रा चला रहा है और उसकी सारी पेष्टाओंका पर्यवसान उसी एक तत्व के ज्ञानमें होना सम्भव है। मानव ही क्या, विश्वका अणु-अणु तीव्रतम वेगसे गतिशील है मानों वह अपने किसी प्रियतमसे मिलनेके लिए छटपटा रहा है, और उस सुखद मिलनके लिए थोड़ा भी विलम्ब सहन करनेके लिए तैयार नहीं है। वह किसी
१. यथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्वाद्, वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।
( छा० उप० ६-१-४)
२९० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ
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