Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 312
________________ हित किया जाता है। प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति और समाधि ये षडंग योग है। समाजोत्तरतन्त्रके अनुसार, षडंगयोगसे ही बुद्धत्व सम्यक् सम्बोधि प्राप्त हो सकती है। हीनयानियोंकी दृष्टिसे, योग द्वारा ही भवकी प्रवृत्तिका निरोध और निर्वाणमें प्रवेश होता है। महायानियों के अनुसार, योगी समाधिके द्वारा तथता या समताका प्रत्यक्षीकरण करते हैं। कुशल या शुभमें चित्तकी एकाग्रता ही समाधि है। योगमें समताकी भावनाका पक्ष लेते हुए भगवान् बुद्धने कहा है : 'योगीकी प्रज्ञा इष्ट-अनिष्टमें तादिभाव, यानी समभावका आवाहन करती है। बौद्धोंके अनुसार, 'योगानुयोग' ही कर्म है और 'कर्मस्थान' ही योगका साधन है। यही 'कर्मस्थान' 'समाधि'की परिणति की ओर ले जाता है । भगवान् बुद्धने आनन्दसे कहा था कि वे स्वयं कल्याणमित्र हैं; क्योंकि उनकी शरणमें जाकर ही जीव जन्मके बन्धनसे मुक्त होते हैं : ममं हि आनन्द कल्याणमित्तमागम्म जातिधम्मा सत्ता जातिया परिमुच्चन्ति । (संयुत्तनिकाय, १४८८)। इस प्रकार, श्रीमद्भगवद्गीता, योगसूत्र तथा बौद्धदर्शनकी योगसम्बन्धी धारणाएं और व्याख्याएँ प्रायः समानान्तर रूपसे चलती हैं। किन्तु, जैनदार्शनिकोंने योगके मूलाधारके अन्तरंग साम्यको स्वीकारते हुए भी अपनी यौगिक व्याख्या अपने ढंगसे की है। इस प्रसंगमें मुनि मंगलविजयजी महाराजका योगप्रदीप ग्रन्थ योगकी व्यापक विवेचनाकी दृष्टिसे पर्याप्त महत्त्व रखता है। मंगलविजयजी भी पातंजल योगदर्शनसे अतिशय प्रभावित है। फिर भी, उन्होंने योगकी भव्यशैलीमें वर्णना की है। मंगलविजयजीने पतंजलि-निर्दिष्ट योगके अष्टांगकी स्वीकृति दी है, किन्तु उन्होंने 'चित्तवृत्तिनिरोध'को योग न मानकर 'धर्मव्यापाररूपता'को योग कहा है। 'धर्मव्यापार'की व्याख्या करते हए उन्होंने कहा है कि 'समताकी रक्षा' ही धर्मका व्यापार है। जैनसाहित्यके सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन सूत्रमें 'योग' शब्दका व्यवहार हुआ है । जैनतत्त्वविद्यामें मन वाणी और शरीरकी प्रवृत्तिको भी योग कहा गया है। किन्तु, साधनाके अर्थमें 'संवर' या 'प्रतिमा'का प्रयोग अधिक प्रचलित है। आचार्य हरिभद्रने उन सारे धार्मिक व्यापारोंको योग कहा है, जो व्यक्तिको मुक्तिसे जोड़ते हैं : मोक्खेणं जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। आधुनिक कालके प्रसिद्ध जैनाचार्य आचार्यश्री तुलसीने अपने 'मनोनुशासनम्' ग्रन्थमे 'योग'को 'मनका अनुशासक' बतलाया है। अन्तमें हम योगदर्शन पुस्तकके लेखक तथा प्रसिद्ध योगवेत्ता डॉ० सम्पूर्णानन्दके शब्दोंमें कहें कि भारतके कई सहस्र वर्षों के इतिहासमें योग और उससे सम्बन्ध रखनेवाले शब्दोंका व्यवहार धार्मिक और आध्यात्मिक वाङ्मयमें, जो भारतीय आत्माकी अभिव्यक्तिका सबसे विशद और व्यापक माध्यम है, सर्वत्र व्याप्त हो गया है । अन्ततः कहना होगा कि जहाँ-जहाँ भारतीय प्रभाव पहुँचा है, वहाँ-वहाँ योगाचार भी पहुँच गया है। क्योंकि, भारतीयता और योग दोनोमें अविनाभावि सम्बन्ध है। इसलिए, भारतीय योगकी किरणें दिग्दिगन्तमें प्रसार पा रही हैं। इस सन्दर्भ में यह कहना अनुचित न होगा कि ज्यों-ज्यों विश्वमें भौतिकताका साम्राज्य विस्तार पाता जायगा, त्यों-त्यों भारतीय ऋषि-मुनियों द्वारा आविष्कृत योग-संजीवनीकी मांग नित्य-निरन्तर बढ़ती ही चली जायगी। विविध : २७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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