Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मेवाड़ प्रदेशके प्राचीन डिंगल कवि
श्री देव कोठारी प्राचीन संस्कृत शिलालेखों एवं पुस्तकोंमें मेदपाट' नामसे प्रसिद्ध वर्तमानका मेवाड़, राजस्थान प्रान्तके दक्षिणी भूभागमें उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व भीलवाड़ा जिलोंमें फैला हुआ प्रदेश है। शताब्दियों तक यह प्रदेश शौर्य, साहस, स्वाभिमान और देशगौरवके नामपर मर मिटने वाले असंख्य रणबांकुरोंकी क्रीड़ास्थलीके रूपमें प्रसिद्ध रहा है तथा यहाँके कवियोंने रणभेरीके तुमुलनादके बीच विविध भाषाओं में विपुल साहित्यका सृजन किया है और उसे सुरक्षित रखा है।
दिवंगिर जो आगे चलकर डिंगलके नामसे अभिहित की जाने लगी, आचार्य हरिभद्रसूरि (वि० सं० ७५७-८२७) से लेकर लगभग वर्तमान समय तक इस प्रदेशके कवियोंकी प्रमुख भाषा रही। प्रारंभमें डिंगल, अपभ्रंशसे प्रभावित थी किन्तु धीरे-धीरे उसका स्वतंत्र भाषाके रूपमें विकास हुआ। अब तक किये गये अनुसंधान कार्यके आधारपर विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध तक इस प्रदेशमें जैन साधुओं द्वारा निर्मित काव्य ही मिलता है। महाराणा हमोर (वि० सं० १३८३-१४२१) के शासनकालमें सर्वप्रथम सोदा बारहठ बारूजी नामक चारण कविके फुटकर गीत मिलते हैं और उसके बाद जैन साधुओंके साथ-साथ चारणोंका काव्य भी क्रमशः अधिक मात्रामें उपलब्ध होता है। यह परम्परा वर्तमान समय तक कम अधिक तादाद में चाल रही है। यहाँके राजपूत, भाट, ढाढी, ढोली आदि जातियोंके कवियोंने भी काव्य निर्माणमें योग दिया है परन्तु परिमाणकी दृष्टिसे वह कम है। चारण कवियोंका काव्य परिनिष्ठित डिंगलमें मिलता है तो जैन साधुओं व अन्य जातिके कवियोंका काव्य लौकिक भाषासे प्रभावित डिंगलमें मिलता है। यही कारण है कि चारणोंके काव्यमें तद्भव शब्दोंका प्रयोग अधिक है तो चारणेतर काव्यमें लौकिक भाषाके शब्दोंका । यहाँ प्रस्तुत लेखमें मेवाड़ में इस प्रकारके प्रसिद्ध प्राचीन चारण और चारणेतर कवियों तथा उनके काव्यका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है
-प्रभाचन्द्रसूरी द्वारा वि० सं० १३४४ में रचित 'प्रभावक चरित' थे अनुसार
हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के राजा जितारिके राजपुरोहित थे। पदमश्री मनि जिनविजयजीने इनका जन्म स्थान चित्तौड़ और जीवनकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ के मध्य माना है।
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग २ पृष्ठ ३३४-३३५ । २. (i) डॉ० ब्रजमोहन जावलिया डिंगल: एक नवीन संवीक्षण, मधुमती मार्च ६९, पृष्ठ ८३-८४
(ii) डिंगल शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंने अपने मत प्रस्तुत किये हैं, किन्तु डॉ.
जावलियाका यह मत ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। ३. श्री अगरचन्द नाहटा-जैन साहित्य और चित्तौड़, शोध पत्रिका-मार्च १९४७ (भाग १, अंक १)
पृष्ठ ३४। जैन साहित्य संशोधक, पूना, भाग १, अंक १ में मुनि श्री जिनविजयजीका लेख-'हरिभद्रसूरिका समय-निर्णय ।
भाषा और साहित्य : २२९
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