Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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सद्भावमें ही होना चाहिए । अविनाभावीका अर्थ है - अनुमैय के बिना न होना, अनुमेयके होनेपर ही होना अन्यथानुपपन्नत्व और अन्यथानुपपत्ति उसीके पर्याय हैं । इसका तात्पर्य यह है कि ऊपर जो हेतुको द्विरूप, त्रिरूप, चतुःरूप, पञ्चरूप, षड्रूप और सप्तरूप विभिन्न दार्शनिकोंने बतलाया है उसे स्वीकार न कर जैन विचारक हेतुको मात्र एकरूप मानते हैं। वह एक रूप है अविनाभाव, जिसे अन्यथानुपन्नत्व और अन्यथानुपपत्ति भी कहा जाता है । समन्तभद्रने ' आप्तमीमांसा में हेतुका लक्षण देते हुए उसमें एक खास विशेषण दिया है । वह विशेषण है 'अविरोध' । इस विशेषण द्वारा उन्होंने बतलाया है कि हेतु त्रिरूप या द्विरूप आदि हो, उसमें हमें आपत्ति नहीं है, किन्तु उसे साध्यका अविरोधी अर्थात् अविनाभावी होना नितान्त आवश्यक है | अकलङ्कदेवने उनका आशय उद्घाटित करते हुए लिखा है कि 'सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात्' इस वाक्यके द्वारा समन्तभद्रस्वामीने हेतुको त्रिरूप सूचित किया और 'अविरोधत:' पदसे अन्यथानुपपत्तिको दिखलाकर केवल त्रिरूपको अहेतु बतलाया है । उदाहरणस्वरूप ' तत्पुत्रत्व' आदि असद् हेतुओं में त्रिरूपता तो है, पर अन्यथानुपपत्ति नहीं है और इसलिए वे अनुमापक नहीं हैं । किन्तु जो त्रिरूपतासे रहित हैं तथा अन्यथानुपपत्तिसे सम्पन्न हैं वे हेतु अवश्य अनुमापक होते हैं । फलतः 'नित्यत्वे - कान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते' [आप्त मी० का ० ३७] इत्यादि प्रतिपादनोंमें अन्यथानुपपत्तिका ही आश्रय लिया गया है । विद्यानन्द ने 3 भी समन्तभद्रके उक्त 'अविरोधत:' पदको हेतुलक्षणप्रकाशक बतलाया है ।
पात्रस्वामीका कोई तर्कग्रन्थ यद्यपि उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अनन्तवीर्यके उल्लेखानुसार उन्होंने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रचा था, जिसमें त्रिरूप हेतुका निरसन किया गया होगा । तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने" तो उनके नामसे उनकी अनेक कारिकाओंको अपने तत्त्वसंग्रह में उद्धृत भी किया है जो सम्भवतः उक्त 'त्रिलक्षणकदर्थन' की होंगी । शान्तरक्षित के विस्तृत उद्धरणका कुछ उपयोगी अंश निम्न प्रकार है—
अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशंकते --
अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा सुहेतुता । नासति त्र्यंशकस्यापि तस्मात्क्लीवास्त्रिलक्षणाः || अन्यथानुपपन्नत्वं यस्यासो हेतुरिष्यते । एकलक्षणकः सोऽर्थश्चतुर्लक्षणको न वा ॥ नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ तेनैकलक्षणो हेतुः प्राधान्याद् गमकोऽस्तु नः । पक्षधर्मत्वादिभिस्त्वन्यैः किं व्यर्थैः परिकल्पितैः ॥
इस उद्धरणमें तीसरे स्थानपर स्थित 'नान्यथानुपपन्नत्वं' कारिका जैन न्याय-ग्रन्थों में भी पात्रस्वामीके नामसे उद्धृत मिलती है । अतः तत्त्वसंग्रह और जैन ग्रन्थोंमें उपलब्ध यह कारिका पात्रस्वामीरचित है और उसमें त्रिरूप हेतुका निरास तथा एकरूप ( अन्यथानुपपन्नत्व) हेतुका प्रतिपादन है ।
१. आप्त मी० १०६ ।
२.
अष्टश० अष्टस०, पृ० २८९; आप्तमी० का० १०६ ।
३. अष्टस०, पृ० २८९; आप्तमी० का० १०६ ।
४. सिद्धि वि० ६।२; पृ० ३७१-३७२ ।
५.
तत्त्व सं० का ० १३६४, १३६५, १३६९, १३७९, पृ० ४०५-४०७ ॥
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विविध : २६१
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