Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आधीन हो जावे । किन्तु कान्हड़देने उसके प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया, अलाउद्दीनने जालौरपर आक्रमण कर दिया। उसकी सेनाने जालोरके समीप ही पड़ाव डाल दिया। इस आक्रमण के समय सुल्तानके साथ उसकी कन्या फीरोज़ा भी साथ थी। वह कान्हड़देके कुमार वीरमदेके गुणोंकी ख्याति सुनकर उसपर आसक्त हो चकी थी । वीरमदेके साथ उसकी विवाहकी इच्छा ज्ञात कर सुल्तान अलाउद्दीनने विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव कान्हड़देके पास भेजा। किन्तु अपनी जाति एवं वंशकी मर्यादाका ध्यान कर कान्हड़देने अलाउद्दीन का यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। अलाउद्दीनको यह असह्य हो गया। उसने आगे बढ़कर जालौर का घेरा डालनेका निश्चय किया और अन्तमें उसने घेरा डाल भी दिया। पर इस बार भी सुलतानको सफलता हाथ न लगी अलाउद्दीनने विवश होकर अपनी राजधानी को लौटने की तैयारी की। किन्तु सुल्तानकी कुमारी फीरोजा वीरमदेवके दर्शनोंके लिए व्यग्र थी। उसने सेनाकी एक टुकड़ी लेकर गढ़के भीतर जानेका विचार किया। वह सेनाकी एक छोटी-सी टुकड़ी लेकर भीतर पहुँच गई भी । कान्हड़देने जब उसे वहाँ देखा तो उसने उसका स्वागत किया। वीरमदेव भी उससे आकर वहाँ मिला। उस समय राजकुमारीने स्वतः वीरमदेवसे विवाहका प्रस्ताव किया। वीरमदेवने अपनी जाति कुलकी प्रतिष्ठाका ध्यान रखते हुए उस प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया। राजकुमारीने तब जालौर देखने की इच्छा प्रकट की। कान्हड़देने उसे सम्पूर्ण सुविधायें जालौर देखनेकी प्रदान कर दी । जब वह जालौर देख चुकी तब कान्हड़देने उसे प्रचुरमात्रामें भेंट दी और सम्मान एवं प्रसन्नतापूर्वक विदाई भी दी। अलाउद्दीन और उसकी राजकुमारी इस प्रकार कान्हड़देके आतिथ्यसे प्रभावित होकर अपनी राजधानीको लौट गये ।
समय बीतता गया और आठ वर्ष बाद अलाउद्दीनकी सेनाने सुल्तानके आदेशको पाकर जालौरपर पुनः आक्रमण कर दिया। इस बार राजकुमारी फीरोज़ स्वयं जालोर न आई। उसने अपनी धायको सेनाके साथ भेज दिया। उसने उससे कहा कि यदि वीरमदे युद्ध में बन्दी हो जावे तो वह उसके पास जीवित ले जाया जाये और वह युद्धमें वीरगतिको प्राप्त हो तो वह उसका सिर उसके पास ले आवे ।
यथासमय योजनानुसार जालौरके चारों ओर घेरा डाल दिया गया। युद्ध चार वर्ष चलता रहा। जालौर का घेरा डालनेवालोंका मुकाबला चार वर्ष तक मालदेव और वीरमदेके नेतृत्वमें जालौरकी जनताने किया। उन्होंने सुल्तानी सेनाके छक्के छुड़ा दिये किन्तु राजकीय भण्डार रिक्त-सा हो गया। उस स्थानके व्यवसायियोंने अपने समस्त भण्डार एकत्र करके देशकी रक्षाके लिये अर्पित कर दिये। ऐसे त्याग तथा बलिदानने योद्धाओंका साहस बढ़ा दिया और जालौरकी जनताने आठ वर्षांतक आगे शत्रुका सामना किया। बारह वर्षोंके लम्बे समयमें जलाभावका भी एकसे अधिक बार भय हुआ। किन्तु ईश्वरकी कृपासे वह पूर्ण होता चला गया। किन्तु विश्वासघातपर वश नहीं हो पाया और एक ऐसी दुर्घटना हो गई। सुल्तानकी सेनाके योद्धाओंने प्रलोभनके आधारपर एक सेजवाल वीकमसे एक ऐसा गुप्त मार्ग जान लिया जिससे शत्रुसेना गढ़में घुस सकती थी। उस मार्गको अपनाकर सारी सेना जालौर गढ़के भीतर घुस गई। पर जब सेजवालकी स्त्री हीरादेवीको यह पता चला कि उसके पतिने अपने राजाके साथ ही नहीं अपने देशके साथ विश्वासघात किया उसने राजस्थानकी वीराङ्गनाओंके समान अपने सुहागको चिन्ता न करके उसका वध अपने हाथों ही कर डाला और शत्रुसेनाके गढ़ के अन्दर आनेकी सूचना अपने राजाको दे दी। उस समय शत्रुसेना सारीकी सारी धीरे-धीरे गढ़के भीतर पहुँच गई थी। राजा तथा उसके सैनिक राजपूत योद्धा उनकी संख्याको देखकर हताशसे थे क्योंकि राजपूत सैनिक घेरेके बारह वर्षोंकी अवधिमें संख्यामें अत्यल्प रह गये थे। उनके सामने दो ही विकल्प थे-या तो वश्यता स्वीकार करें या प्राणोंकी आहुति दें। सच्चे राजपुत पहलेकी
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भाषा और साहित्य : २०९
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