Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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एक अन्य प्रकारके गीतका निदर्शन है
सरोवरं पफुट कंजरेण पिंजरं, समीयरं सगज्ज उभडं सुसायरं। वरं सुआसणं मयारि रूव भीसयं, सरं मयंस दित्तयं सुदेव गेहयं । अहिंद मंदिरं सुलोयणित्त सुंदरं, पकंत्ति जुत्तयं सुरण्ण संचयं वरं ।
ण तित्ति इंधणं हुयासणं पलित्तयं, अधूमजाल देवमग्गुणं गिलंतयं । एक अन्य रागका गीत पठनीय है
हुल्लरु सुरवइ मण रंजिएण, हुल्लरु उवसग्ग विहंजिएण । हुल्लरु मुणिमण संतोसिएण, हुल्लरु भवियण गण पोसिएण ।
हुल्लरु तिल्लोयहु विहिय सेव, हुल्लरु ईहिय दय विगय लेव । ८,२ इस प्रकारके अन्य गीतोंसे भी भरित यह काव्य साहित्यका पूर्ण आनन्द प्रदान करता है। एक तो अपभ्रंश भाषामें और विशेषकर इस भाषामें रचे गये गीतोंमें बलाघातात्मक प्रवृत्ति लक्षित होती है । आज तक किसी भी भाषाशास्त्री तथा अपभ्रंशके विद्वानका ध्यान इस ओर नहीं गया है। किन्तु अपभ्रंशके लगभग सभी काव्योंमें सामान्यरूपसे यह प्रवृत्ति लक्षित होती है। उदाहरण के लिए
इक्के वुल्लाविउ मुक्खगामि, इक्के विहसाविउ भुवणसामि ।
इक्के गलिहारु विलंवियउ, इक्के मुहेण मुहु चुंवियउ। किन्तु बलाघात उदात्त न होकर किंचित् मन्द है । इसी प्रकारका अन्य उदाहरण है
सुय सिरिदत्ता जणिय पहिल्ली, पंगु कुंटि अण्णिक्क गहिल्ली ।
पुणु वहिरी कण्ण ण सुणइ वाय, पुणु छट्ठी खुज्जिय पुत्ति जाय । तथा--
आराहिवि सोलहकारणाइ, जे सिवमंदिरि आरोहणाइ ।
तिल्लोक्कचक्क संखोहणाइ, संपुण्ण तवें अज्जिय विसेण । एवम्---
जे? बहल वारिस जाणिज्जहु, माहहु सिय तेरसि माणिज्जहु । जेट्ठहु बहल चउद्दसि जाणहु, पइसाहहु सिय पडिव पमाणहु ।
मग्गसिरहं दिय चउदसि जाणिया, पुणु एयारसि जिणवर काणिया। संगीतात्मक ताल और लयसे समन्वित पद-रचना देखते ही बनती है । यथा--
झरंति दाण वारि लुद्ध मत्त भिंगयं, णिरिक्ख एसु दंति वेयदंत संगयं । अलद्ध जुज्झु ढिक्करंतु सेयवण्णयं, घरम्मि मंद संपविस्समाणु गोवयं । पउभियं कम चलं व पिंगलोयणं, विभा सुरंधु लतकंव केसरं घणं ।
सणंकरं तुयंतु संतु लंब जीहयं, पकोवयं पलित्तु पिच्छए सुसीहयं । काव्य भाव और भाषाके सर्वथा अनुकूल है । भावोंके अनुसार ही भाषाका प्रयोग दृष्टिगत होता है। फिर भी, भाषा प्रसाद गुणसे युक्त तथा प्रसंगानुकूल है । जैसे कि--
कालाणलि अप्पउ किणि णिहित्त, आसीविसु केण करेण छित्तु । सुरगिरि विसाणु किणि मोडियउ, जममहिससिंगु किणि तोडियउ।
जो महु विमाण थंभणु करेइ, सो णिच्छय महु हत्थें मरेइ । १६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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