Book Title: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Part 2
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रयोगोंके साधत्वका निर्देश पाणिनिने एक सूत्र 'नित्यं पणः परिमाणे' (३-३-६६)में किया है। इन पदोंका प्रयोग बाजारमें शाक-भाजी बेचनेवाले किया करते थे।
(२) इसी प्रकार रसोई बनानेवाले पाचक, खेती करनेवाले किसानके दैनिक प्रयोगमें आनेवाले पदोंके साधुत्व का निर्देश अनेकत्र यथाप्रसंग अष्टाध्यायी (४.२.१६-२० तथा ४.४.२२-२६)में पाणिनिने किया है। उन निर्देशों के अनुसार दही या मठेसे बना खाद्य 'दाधिकम, औदरिवत्कम्' कहा जाता था, नमकीन शाकरसको 'लवणः सूपः' कहते थे।
(३) किसानोंके धान्योपयोगी विभिन्न क्षेत्रोंके वाचक--प्रेयङ्गवीनम्, बैहेयम्, यव्यम्, तैलीनम्, तिल्यम्, आदि पदोंके साधुत्वका निर्देश पाणिनिने अष्टाध्यायी (५.२.१-४)में किया है। ग्रामीण किसान जिन खेतोंमें विभिन्न अनाज बोते थे, उन खेतोंके लिए इन पदोंका प्रयोग करते थे।
(४) इसी प्रकार कपड़े रंगनेवाले रँगरेजोंके व्यवहारमें आनेवाले 'माजिष्ठम्, काषायम्, लाक्षिकम्, रोचनिकम्' आदि पदोंके साधुत्वके लिए पाणिनिने 'तेन रक्तं रागात्, लक्षारोचना?क्' (अष्टा० ४.२.१-२) आदि सूत्र कहे हैं ।
(५) इस विषयमें दो स्थलोंका और उल्लेख किया जाता है, जो विशेष ध्यान देने योग्य हैं। व्यास नदीसे उत्तर और दक्षिण की ओर बने कूओंके नाम, बनानेवालोंके नामसे व्यवहृत होते थे। दत्तका बनवाया हुआ कुआं 'दात्तः' कहा जाता था। और गुप्तका बनवाया हुआ 'गौप्तः' (अष्टा० ४.२.७४, उदक् च विपाशः)। नदीके दानों ओरके प्रदेशोंमें व्यवहृत होनेवाले इन पदोंका स्वरूप समान था, परन्तु दोनों ओरके उच्चारणमें थोड़ा अन्तर था। उत्तरकी ओरके लोग पदके अन्तिम अक्षरपर जोर देते थे अर्थात् वे इन पदोंका अन्तोदात्त उच्चारण करते थे तथा नदीके दक्षिणकी ओरके निवासी इन पदोंके पहले अक्षरपर जोर देते थे, अर्थात् वे इन पदोंका आधुदात्त उच्चारण करते थे। उस प्रदेशमें निवास करनेवाली साधारण जनता द्वारा इन पदोंके उच्चारणकी विशेषतापर आचार्य पाणिनिने ध्यान देकर अन्तोदात्त उच्चारणके लिए 'अञ्' प्रत्यय और आधुदात्त उच्चारणके लिए 'अण्' प्रत्ययका विधान किया, जिससे पदोंका स्वरूप समान रहे, और उच्चारणका अन्तर स्पष्ट किया जा सके ।
काशिकाकारने सूत्र (४.२.७४)की व्याख्या करते हुए पाणिनिके विषयमें लिखा है-'महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' अपने कालकी लोकभाषाके विषयमें आचार्य पाणिनिका इतनी गहराई व सूक्ष्मतासे विचार करना आश्चर्यजनक है, जो पदोंके उच्चारण भेदको भी अभिव्यक्त करनेका ध्यान रखकर उसके लिए नियमित व्यवस्था कर दी।
(६) अन्य एक प्रसंगमें पाणिनिने कहा-जातिके एक होनेसे जातिवाचक पदका एकवचनमें प्रयोग प्राप्त होता है, परन्तु लोकभाषामें एकवचन और बहुवचन दोनों रूपोंमें देखा जाता है, उसी के अनुसार आचार्यने उन पदोंके साधुत्वका निर्देश किया-'जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनमन्यतरस्याम्' (अष्टा० १.२.५८) जैसे-'यवः सम्पन्नः, यवाः सम्पन्नाः । ब्रीहिः सम्पन्नः, ब्रीयः सम्पन्नाः', आज भी किसान यही प्रयोग करता है-जो पक गया, जौ पक गये, काट डालो। धान पक गया, धान पक गये, इत्यादि । आजके
और पाणिनिकालके व्यवहारमें कोई अन्तर नहीं, केवल भाषामें अन्तर है। आजका किसान हिन्दी बोलता है, उस समयका संस्कृत बोलता था। उसी व्यवहारके अनुरूप पाणिनिने नियमों का निर्देश किया।
पाणिनि व्याकरणकी उक्त अन्तःसाक्षियोंके आधारपर यह स्पष्ट होता है कि पाणिनिके कालमें
इतिहास और पुरातत्त्व : १३९
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