Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 14
________________ ज्ञाताधर्मकथा का सन् १९६४ में मैंने एक संक्षिप्त अनुवाद किया था जो श्री तिलोक - रत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी से प्रकाशित हुआ था । वह संस्करण विशेषतः छात्रों को लक्ष्य करके सम्पादित और प्रकाशित किया गया था । प्रस्तुत संस्करण सर्वसाधारण स्वाध्यायप्रेमी एवं जिज्ञासुओं को ध्यान में रख कर समिति द्वारा निर्धारित पद्धति का अनुसरण करते हुए तैयार किया गया है। इसमें स्थान-स्थान पर 'जाव' शब्द का प्रयोग करके इसी ग्रन्थ में अन्यत्र आए पाठों को तथा अन्य आगमों में प्रयुक्त पाठों को संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है। फिर भी ग्रन्थ अपने आप में बृहदाकार है । अतएव ग्रन्थ अत्यधिक स्थूलकाय न बन जाए, यह बात ध्यान में रख कर 'जाव' शब्द से ग्राह्य आवश्यक और अत्युपयोगी पाठों को ब्रैकेट में दे दिया गया है, किन्तु जिस 'जाव' शब्द से ग्राह्य पाठ वारंवार आते ही रहते हैं, जैसे 'मित्त - णाई', अन्नं पाणं, आदि वहाँ अति परिचित होने के कारण यों ही रहने दिया गया। कहीं-कहीं उन पाठों के स्थान टिप्पणी में उल्लिखित कर दिए हैं। कथात्मक होने से प्रस्तुत ग्रन्थ के आशय को समझ लेना कठिन नहीं है। अतएव प्रत्येक सूत्र - कंडिका का विवेचन करके ग्रन्थ को स्थूलकाय बनाने से बचा गया है, परन्तु जहाँ आवश्यक प्रतीत हुआ वहाँ विवेचन किया गया है। प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ से पूर्व उसका वास्तविक रहस्य पाठक को हृदयंगम कराने के लक्ष्य से सार संक्षेप में दिया गया है। आवश्यक टिप्पणी और पाठान्तर भी दिए गए हैं। अनेक स्थलों में मूलपाठ के 'जाव' शब्द का 'यावत्' रूप हिन्दी - अनुवाद में भी प्रयुक्त किया गया है । यद्यपि प्रचलित भाषा में ऐसा प्रयोग नहीं होता किन्तु प्राकृत नहीं जानने वाले और केवल हिन्दी - अनुवाद पढ़ने वाले पाठकों को भी आगमिक भाषापद्धति का किंचित् आभास हो सकेगा, इस दृष्टिकोण से अनुवाद में 'यावत्' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'यावत्' शब्द का अर्थ है - पर्यन्त या तक। जिस शब्द या वाक्य से आगे जाव (थावत्) शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ से आरम्भ करके जिस शब्द के पहले वह हो, उसके बीच का पाठ यावत् शब्द से समझा जाता । इस प्रकार पुनरुक्ति से बचने के लिए 'जाव' शब्द का प्रयोग किया जाता है। अन्त में तीन परिशिष्ट दिए गए हैं। प्रथम परिशिष्ट में उपनय-गाथाएँ दी गई हैं और उनका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है। ये गाथाएँ मूल आगम का भाग नहीं हैं, अतएव इन्हें मूल से पृथक् रक्खा गेया है । फिर भी अध्ययन का मर्म प्रकाशित करने वाली हैं, अतएव पठनीय हैं। दूसरे परिशिष्ट में प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त व्यक्तिंविशेषों की अकारादि क्रम से सूची दी गई है और तीसरे में स्थल- विशेषों की सूची है जो अनुसंधानप्रेमियों के लिए विशेष उपयोगी होगी । मूलपाठ के निर्धारण में तथा 'जाव' शब्द की पूर्ति में मुनि श्री नथमलजी म. द्वारा सम्पादित 'अंगसुत्ताणि' का अनेकानेक स्थलों पर उपयोग किया गया है, एतदर्थ उनके आभारी हैं । अर्थ करने में श्री अभयदेवसूरि की टीका का अनुगमन किया गया है। इनके अतिरिक्त अनेक आगमों और ग्रन्थों से सहायता ली गई है, उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना कर्त्तव्य है । आशा है प्रस्तुत संस्करण जिज्ञासु स्वाध्यायप्रेमियों, आगम-सेवियों तथा छात्रों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा । चम्पानगर, ब्यावर ११ - शोभाचन्द भारिल्ल

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