Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
सम्पादकीय : यत्किञ्चित्
(प्रथम संस्करण से )
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग द्वादशांगी में छठा अंग है और कथाप्रधान है। यद्यपि अन्तगड, अनुत्तरोववाइय तथा विपाक आदि अंग भी कथात्मक ही हैं तथापि इन सब अंगों की अपेक्षा ज्ञाताधर्मकथा का अपना एक विशिष्ट स्थान है। कहना चाहिए कि यह अंग एक प्रकार से आकर अंग है । यद्यपि प्रस्तुत अंग में भी औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि अंगों के अनुसार अनेक प्ररूपणाएँ - विशेषतः राजा, रानी, नगर आदि को जान लेने के उल्लेख—स्थान-स्थान पर उपलब्ध होते हैं, फिर भी अनेक कथा - आगमों में ज्ञातासूत्र का ही प्रचुरता से उल्लेख हुआ है। अतएव आकर - अंगों में प्रस्तुत सूत्र की गणना करना अनुचित नहीं, सर्वथा उचित ही है ।
ज्ञाताधर्मकथाङ्ग की भाषा भी पूर्वोक्त अंगों की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ और साहित्यिक है । जटिलता लिए हुए है । अनेक स्थल ऐसे भी इसमें हैं जहाँ बड़ी हृदयहारी आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है और उसे पढ़ते समय ऐसा आभास होता है कि हम किसी कमनीय काव्य का रसास्वादन कर रहे हैं। आठवें अध्ययन में वर्णित अर्हन्नक श्रमणोपासक की समुद्रयात्रा के प्रसंग में तालपिशाच द्वारा किये गये उपसर्ग का वर्णन है और नौका के डूबने-उतरने का जो वर्णन किया गया है, वह अत्यन्त रोचक है । उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार वहाँ मन को मोह लेते हैं ।
अन्यत्र ज्ञाताधर्मकथासूत्र की कथाओं में अवान्तर कथाओं का उल्लेख मिलता है, वे सब कथाएँ आज उपलब्ध नहीं हैं तथापि उनकी एक स्पष्ट झलक आज भी देखी जा सकती है और वे अवान्तर कथाएँ लगभग सर्वत्र विद्यमान हैं। प्रथम अध्ययन में मेघकुमार की कथा के अन्तर्गत उसके पूर्वभवों की कथाएँ हैं तो द्वितीय अध्ययन में धन्य सार्थवाह की कथा में विजय चोर की कथा गर्भित है । अष्टम अध्ययन में तो अनेकानेक अवान्तर कथाएँ आती हैं। उनमें एक बड़ी ही रोचक कथा कूपमंडूक की है। नौवें माकन्दी अध्ययन में प्रधान कथा माकन्दीपुत्रों की है, मगर उसके अन्तर्गत रत्नद्वीप की रत्ना देवी और शूली पर चढ़े पुरुष की भी कथा है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी ऐसी कथाएँ खोजी जा सकती हैं
1
उदाहरण के रूप में ही यहाँ अवान्तर कथाओं का उल्लेख किया जा रहा है। आगम का सावधानी के साथ पारायण करने वाले पाठक स्वयं ऐसी कथाओं को जान-समझ सकेंगे, ऐसी आशा है ।
प्रस्तुत आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। टीकाकार के अनुसार प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो कथाएँ हैं, वे ज्ञात अर्थात् उदाहरण हैं और दूसरे श्रुतस्कन्ध की कथाएँ धर्मकथाएँ हैं। अनेक स्थलों पर टीकाकार का यही अभिमत उल्लिखित हुआ है। टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने अपनी टीका के प्रारम्भ में इस प्रकार लिखा है'नायाणि त्ति ज्ञातानि उदाहरणानीति प्रथमश्रुतस्कन्धः, धम्मकहाओ - धर्मप्रधानाः कथाः धर्मकथाः । ज्ञातता चास्यैवं भावनीया - दयादिगुणवन्तः सहन्त एवं देहकष्टं उत्क्षिप्तैकपादो मेघकुमारजीवहस्तीवेति । '
तात्पर्य यह है कि 'नाम' का संस्कृत रूप 'ज्ञात' है और ज्ञात का अर्थ है उदाहरण । इस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध 'ज्ञात' है । इसे ज्ञात (उदाहरण) रूप किस प्रकार माना जाय ? इस प्रश्न का समाधान यह दिया गया है कि जिनमें दया आदि गुण होते हैं वे देह कष्ट सहन करते ही हैं, जैसे एक पैर ऊपर उठाए रखने वाला मेघकुमार का जीव हाथी ।
९