Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 691
________________ सुधा टीका स्था०७ सू० ३१ अतिशयनिरूपणम् " टीका--' आयरिय उवज्झायास ' इत्यादि - आचार्योपाध्यायस्य- आचार्यः केषांचिदर्थप्रदातृत्वात् स एव उपाध्यायः केचित् सूत्रमदातृत्वात्, आचार्यश्वासौ उपाध्यायश्चेति आचार्योपाध्यायः, यद्वा - आचार्योऽन्यः, उपाध्यायश्वान्यः, उभयोः समाहारे आचार्योपाध्यायं तस्य खलु गणे सप्त अतिशेषाः = अतिशेषाः मज्ञप्ताः, तद्यथा - आचार्योपाध्याय: उपा श्रवस्य = वसतेः अन्तः=मध्ये निगृह्य निगृह्य = प्रस्फोटनेन उड्डीयमानैश्चरणरजोभिरमा निपेरन्निति हेतोर्वचनेन शिष्यं भूयो भूयो निवार्य पादौ प्रस्फोटयन्= अभिग्रहिकेन (अभिग्रहधारिणा ) अन्येन वा साधुना स्वकीयरजोहरणादिना चरणयोः प्रस्फोटनं कारयन् वा प्रमार्जयन्=यतनया शनै शनैः शोधयन् वा नातिक्रामति जिनाज्ञामिति प्रथमः १| तथा - आचार्योपाध्यायः अन्तरुपाश्रयस्य 9 ६७५ इन विकथाओं में निरत साधुजनों को आचार्य रोकते हैं, क्योंकि वे आचार्य सातिशन होते हैं, अतः अब सूत्रकार उनके अतिशयों का कथन करते हैं- " आयरियउवज्झायस्स णं गणसि" इत्यादि || सूत्र ३ २ ॥ टीकार्थ - किन्हीं २ साधुजनों को अर्थ प्रदाता होनेसे आचार्यरूप उपाध्याय के - गण में - अथवा आचार्य एवं उपाध्यायके गणमें सात अतिशेष कहे गये हैं-जैसे - आचार्योपाध्याय " उपाश्रयके मध्यमें पैरोंके झटकारने से उड़ी हुई चरण रज दूसरेके ऊपर नहीं पड़े इस प्रकारसे शिष्यको धार २ मना करके स्वयं पैरोंको अभिग्रहिक - अभिग्रहधारी से या अन्य साधुजनसे अपने रजोहरण द्वारा यतनापूर्वक प्रमार्जन करता આગલા સૂત્રમાં વિકયાઓનુ` વર્ણન કર્યુ.. આ વિકથાઓમાં નિરત સાધુ· એ ને આચાય રે કે છે, કારણ કે આચાર્ય સાતિશય હોય છે. તેથી હવે સૂત્ર કાર આચાર્યના અતિશયાનું કથન કરે છે. “grafkasąsajaxa of noife” deulle—(232) ટીકા”-કેટલાક સાધુએના અથ પ્રદાતા હૈાવાને કારણે આર્ચાય રૂપ ઉપાધ્યાયના ગણમાં અથવા આચાર્ય અને ઉપાધ્યાયના ગણના નીચે પ્રમાણે સાત અતિશેષા अतिशय ह्या छे - “उपाश्रयनी मांडर पगने अटारपाथी ( आपटपाथी ) थर२०४ उपाश्र યમાં બેઠેલા માણસે. પર પડવાના સ`ભવ રહે છે,” તે કારણે આચાય શિષ્યાને એવી રીતે પગને ઝટકારવાની વારંવાર મના કરે છે. પરન્તુ આચાય પાતે જ જો અભિવૃદ્ઘિક-અભિગ્રહધારી પાસે અથવા અન્ય સાધુ પાસે પેાતાના રસ્તેહરણ વડે યત્તનાપૂર્વક પેાતાના પગની પ્રમાન કરાવે, તેા તેએ જિજ્ઞાસાના વિરાધક ગણાતા નથી. श्री स्थानांग सूत्र : ०४

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