Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Chayanika Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 6
________________ प्राक्कथन गरिपिटक को ही द्वादशांगी कहते हैं । द्वादशांनी में वारहवाँ श्रंग दृष्टिवाद विलुप्त / विच्छिन्न होने से अंग-प्रविष्ट ग्रागमों में एकादशांग ही माने गये हैं । ग्यारह अंगों में भी आचारांग का सर्वप्रथम स्थान है । श्राचारांगसूत्र प्रचार-प्रधान ग्रागम होते हुए भी गूढ़ श्रात्म-दर्शनात्मक और अध्यात्मप्रधान भी है । श्रमण जीवन की मूल भित्ति भी प्राचार ही है, श्रमण-जीवन को साघना भी आचार पर ही निर्भर है और संघीय व्यवस्था भी प्राचार पर ही अवलम्बित है । यही कारण है कि श्राचार की श्रतिशय महत्ता का प्रतिपादन करते हुए आचारांग के चूर्णिकार' प्रोर वृत्तिकार' लिखते हैं कि "प्रतीत, वर्तमान और भविष्य में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, विद्यमान हैं और होंगे, उन सभी ने सर्वप्रथम याचार का ही उपदेश दिया है, देते हैं और देंगे ।" आचारांग नियुक्तिकार प्रचार को ही सिद्धिसोपान / श्रव्यावाघ सुख की भूमिका मानते हुए प्रश्नोत्तरात्मक शैली में कहते हैं कि, "अंग सूत्रों का सार प्राचार है, ग्राचार का सार अनुयोगार्थ है, अनुयोगार्थं का सार प्ररूपणा है, प्ररूपरणा का सार सम्यक् चारित्र है, सम्यक् चारित्र का सार निर्वाण है और निर्वाण का सार अव्यावाध सुख है ।" नियुक्तिकार के मतानुसार आचारांग के पर्यायवाची दश नाम प्राप्त होते हैं - 1. आयार, 2. ग्रचाल, 3, आगाल, 4. आगर, 5. आसास, 2. आयरिस, 7. अंग, 8. आइण्ण, 9. आजाइ और 10. आमोक्ख । आचारांग सूत्र दो श्रुतस्कन्धों में उद्देशकों सहित 9 अध्ययन हैं और 1. चूर्णि पृष्ठ 3. गाथा 16-17 3 विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में अनेक द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूलिकानों 2. शीलांक टीका पृष्ठ 6 4. गाथा 290Page Navigation
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