Book Title: Abhakshya Anantkay Vichar
Author(s): Pranlal Mangalji
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

Previous | Next

Page 170
________________ वरतनमेंसें प्याला भरके मुंहपे लगावे, लेकीन पीवे नहिं, तबतक अतिचार लगता है। और जब वो बिन धास्तीसें पानी पीवे, तब उन्हे अनाचार [महा दोष पाप] कीया, कहलावे। तब तो उन्हें दूसरे भवका भी डर न रहा। जैसा समजा जावे । [कायदेमें अपकृत्य और कसुरगुनाह में जो भेद है, वो भेद धार्मिक जीवनमें अतिचार और अनाचार दोनोके बीचमें है। अपकृत्यका दीवानी दावा होता है। और कसुरका फोजदारी दावा होता है। उस मुताबीक अतिचार और अनाचार दोनोहीदोषके निमित्त होते भी अतिचारमें सुधारके अवकाशकी संभावना है, तब अनाचारमें असंभावना समजनेमें आती है। जीसें वो अधर्म कृत्य माना जाता है । और अतिचार तक दोषवाला होते हुवे भी वोधर्मकृत्य माना जाता है] जब परमाधामीओं गरम जलते सीसेका रस जबर जस्तीसें उनको पीलाते है, तब वो अत्यंत दुःख अनुभवते है, और उनमेंसें छुटनेकी कोशीप करते है, लेकीन कीया हुआ कर्म अनुभवने वीगर वो बीचारेका कहांसे छुटे ? असा समजकर अतिक्रम दोष भी न लगे, वैसे भवभीरु होकर व्रतका पालन करना चाहिये। धन्य है व्रत पालनेमें दृढ सिंह श्रेष्ठिको, की-जिने दिशि नियमका स्वीकार कीया,लेकीन अति विकट स्थितिमें भी व्रत-खंडन नहिं करके अनशन करके. केवळ ज्ञान प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त किया. शरीर (पुद्गल) की-जीसका स्वभाव, सडन, पडन और विध्वंस पानेका है, उनके पर मोह नहि रखते ही उभय लोगमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220