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के लिये भोपालदेवी रानी की स्वर्ण की प्रतिमा बनवाई थी । श्री गुरु महाराजाने - वासक्षेप सहित महाराजा कुमारपाल को राजर्षि ' की उपाधि प्रदान की थी ।
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उपर लिखे अनुसार महाराजा कुमारपाल चतुर्थ व्रत के पालन में त्रिविधे त्रिविधे दृढ प्रतिज्ञापूर्वक शियल का पालन करते थे। परस्त्री तो उनके लिये सदैव माता अथवा भगिनी के सदृश्य थी ।
पंचमतः - करोड़ स्वर्ण मोहरें, आठ करोड़ चाँदी की मोहरें, एक हजार कीमती मणि रत्न, इत्यादि । बत्तीस हजार मण घृत, बत्तीस हजार मन तैल, तीन लाख मन चावल, तथा चणा, जुवार, और मूँग इत्यादि प्रत्येक धान्य के पांचलाख मूडा । घर, हाट, तथा जहाज, गाडी, पालकी, इत्यादि ग्यारह सौ हाथी, पच्चास हजार रथ, ग्यारह लाख घोडे, अठारह लाख सैनिक, इस प्रकार सम्पूर्ण रखने का संग्रह परिग्रह में खुला था ।
षष्ठमव्रतः - वर्षाऋतु के अन्दर तो श्री पाटन की हद के बाहर गमन करना नहीं ।
सप्तमव्रतः - कुमारपाल महाराजा को मद्य, मांस, मधु, मरक्खन, बहु बीजा फल, पांच जाति के उदुम्बर फल, अभक्ष्य, अनन्तकाय, वेबर इत्यादि का नियम था । देव के पास नहीं रक्खे हुए वस्त्र फल तथा आहार इत्यादि का त्याग था । देव के सन्मुख रखकर बाकी का बाद में काम में लेते थे ।
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