Book Title: Abhakshya Anantkay Vichar
Author(s): Pranlal Mangalji
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 168
________________ १५९ कथनी कथे सब कोई, रहणी अति दुर्लभ होई ॥१॥ षट्त्रिंश प्रकारे रसोई, मुख गणतां तृप्ति न होई ॥ शिशु नाम नहि तस लेवे, रसस्वाद सुख अति लेवे॥ जब रहणीका घर पावे, कथणी तब गिणती आवे ।। अब चिदानंद इम जोई, रहणी की सेज रहे सोई॥ भावार्थ-यह कहना है कि कथनी जब रहणी के रूपमें हो जाय, तब उनका उत्तम रस प्राप्त होवे । अन्यथा, छत्तीस जातका पक्वान्न का नाम मात्र गीनने से क्षुधा शान्त होती नहि । वैसे ही ज्ञान संपादन करके उनका यथायोग्य अमलमें लेना चाहिये. वो विरतिवंत क्रिया रुचि जीवों शुक्ल पाक्षिक कहलातें है। मन, वचन, कायाका व्यापार नहि चलता हो, तो भी अविरतिसें निगोदिया वगैरह जीवोंकी माफक बहुत कर्मबन्ध होता है। कहा है की:___ "जो भव्यात्मा भावसें विरति [देश या सर्वसें] अंगीकार करते है, उनकी, विरति पालनेमें असमर्थ देवों बहुत प्रसंसा (गुण ग्राम ) करते है । एकेन्द्रिय जीव कवलाहार बील्कुल करते नहि, तो भी उनको उपवासका फल प्राप्त नहिं होता. वो अविरतिका सबब मानना। एकेन्द्रिय जीवों मन, वचन और कायासें सावध व्यापार करते नहिं, तो भी उनको उत्कृष्ट अनन्त काळ तक वो गतिमें रहना पडता है, और जो भूत पूर्वके भवमें विरतिकी आराधना की हो, तो तिर्यच जीवों यह भवमें चाबुक, अंकुश, लकडीकी तिक्ष्ण आर इत्यादि से सेंकडों Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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