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__१६७ फिर हाथ-पैर की शुद्धि होना भी जरूरी है। उनमें भी जो नित्यप्रति प्रभुपूजा करते हैं उन्हें चाहिये कि वे राख आदि पदार्थसे उपयुक्त हस्तशुद्धि करें, क्योंकि ऐसा न करनेसें केसर या घृत आदिका अंश अपने हाथमें होनेसे उनका पेट में जाना संभव है। और यदि ऐसा हुआ तो देवद्रव्य-भक्षणका महादोष भी लगना संभव है। अतएव शुद्धि बराबर करनी चाहिए। (प्रसंग वश यहाँ यह लिखदेना भी उचित है कि हस्तशुद्धि करते समय कभी सचित्त मिट्टि भी काममें ली जाती है, उससे जीवहिंसा होती है, वास्ते राख आदि निर्जीव पदार्थों से हस्तशुद्धि करना ठीक है।)
खुले छत पर अथवा मैदानमें जहाँकि उपर छत न हो वहाँ भी भोजन करना उचित नहीं है। घी, गुड़, दूध, दही. छाछ, दाल, शाक और पानी आदिके पात्र कभी क्षणभरके वास्ते भी खुले नहीं छोड़देने चाहिये।
श्रावकने अपनेको चाहिए इसीसे भी कम भोजन लेना अर्थात् जरूर जीतनाहि लेना और जूठा बीलकुक नहि छोडना। अपना बरतन-थाली वगेरेह धोके पी लेना जीससे एक आयबीलका लाभ मीलता है। इसी तरह हमेश प्रथम शुद्ध मान
२ देवद्रव्य-ज्ञानद्रव्यादिके भक्षकका तथा देव-गुरु-धर्मके निंदक का अन्न-पानी कभी नहीं लेना चाहिये ।
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