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२ लघुशंका का निवारण (पेशाब) करना वह भी खूली और सूखी अगह में कि जो शीघ्र ही मूख जाये. पेशाब के उपर पेशाब करनेस प्रत्यक्ष शारीरिक हानि होती है। तथा मोरी और गटर आदि में पेशाब करने से असंख्य समूर्छिम पंचेन्द्रिय मानव जीवों तथा कीडे इत्यादि त्रस जीबों की उत्पत्ति और विनाश होता है। इसी लिये एसे स्थानों का परित्याग करना आवश्यक है । शास्त्रों में मोरी आदि स्थानों में पेशाब करने वाले को बेला (दो उपवास) का प्रायश्चित्त कहा गया है-तब फिर बन्धी हुइ टट्टीयों (Latrine) टट्टी जाने से कितना अधिक पाप लगता होगा ? इस लिये लघुशंका (Urine) दीर्वशंका आदि जहां पर मूर्य का प्रकाश पडता हो ऐसे स्थान पर करना आवश्यक है।
__ ३ मुंहसें खेकार डालते, नाक साफ करते, थंकते, वखत करते, कान का मेल निकालते, मेल (खून-पीप आदि) फेंकते समय-ऐसे सूखे स्थान में फेंकना अथवा करना चाहियेजहां शीघ्र सूख जावे-दिन के समय सूर्य के प्रकाश (धूप) में फेंकना चाहिये। ऐसा स्थान अगर घर से दूर भी होवे तो प्रत्येक जैनको अवश्य समजाना चाहिये-कि भलेही वास्तव में इसके तात्कालीक परिणाम नहीं आते है। लेकिन समय व्यतित होनेपर इसके भारी भारी परिणाम अवश्य आनेका है। इसमें रत्तीमात्र भी संशय नहीं है।
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