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संबोधि
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अ. ३ :
आत्मकर्तृत्ववाद
मुनियों ने इन्हीं प्रश्नों को समाहित करने के लिए साधना की और अपने दिव्य ज्ञान और अनुभूति से लोक-मानस को आलोकित किया।
दार्शनिक जगत् में मूलतः दो मुख्य धाराएं रही हैं - ईश्वरवादी धारा और आत्मवादी धारा ।
कुछ दर्शन ईश्वर को जगत् का कर्ता स्वीकार कर सारी व्यवस्था को ईश्वराधीन मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर ही सुख-दुःख का कर्ता और हर्ता है। सुख-दुःख का भोग व्यक्ति करता है। वह भी ईश्वर की इच्छा से, अन्यथा नहीं । इस ईश्वरवादी मान्यता ने व्यक्ति के स्वतंत्र पुरुषार्थ को कुछ भी महत्त्व नहीं दिया । व्यक्ति एक सर्वशक्तिमान् प्रभु के हाथ का खिलौना मात्र रह गया ।
आत्मवादी परंपरा ने ईश्वर को सर्वशक्ति- संपन्न मानकर भी उसे केवल द्रष्टा मात्र स्वीकार किया है। प्रवृत्ति का हेतु कर्म है। ईश्वर निष्कर्म होते हैं। कारण के अभाव में कार्य की निष्पत्ति नहीं होती । आत्मा सकर्मा होता है। सभी प्रवृत्तियां का कर्ता वही है ।
इस परंपरा ने चारों प्रश्नों का उत्तर इस भाषा में दिया
१. सुख-दुःख का कर्ता आत्मा है।
२. सुख-दुःख का भोक्ता आत्मा है।
३. सुख-दुःख का नाश करनेवाला आत्मा है।
४. सुख-दुःख का दाता आत्मा है।
जैन दर्शन - आत्म-कर्तृत्व का पोषक है। उसके अनुसार आत्मा सद्-असद् प्रवृत्ति के द्वारा पुद्गलों को आकृष्ट करती है। आकर्षण, कषाय- सापेक्ष होता है। मंदता और तीव्रता का आधार भी यही है। ये आकृष्ट पुद्गल कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों के उदय से आत्मा वैभाविक प्रवृत्तियों में जाती है और इनके क्षय से आत्मा स्वभाव की ओर अग्रसर होती है। जब इनका संपूर्ण विलय हो जाता है तब आत्मा निर्वाण को प्राप्त होती है, परमात्मा बन जाती है।
भगवान् प्राह
१३. आत्मा कर्ता स एवास्ति, भोक्ता सोऽपि च घातकः । सुखदो दुःखदः सैष, निश्चयाभिमतं स्फुटम् ॥
. १४. शरीरप्रतिबद्धोऽसौ, आत्मा चरति संततम् । सकर्मा क्वापि सत्कर्मा, निष्कर्मा क्वापि संवृतः ॥
१५. कुर्वन् कर्माणि मोहेन, सकर्मात्मा निगद्यते । अर्जयेदशुभं कर्म, ज्ञानमाव्रियते
ततः ॥
१६. आवृतं दर्शनं चापि वीर्यं भवति बाधितम् । पौद्गलिकाश्च संयोगाः, प्रतिकूलाः प्रसृत्वराः ॥
१. कर्म के दो अर्थ हैं-प्रवृत्ति और कर्म वर्गणा के पुद्गल ।
सुख-दुःख का कर्ता आत्मा है। वही भोक्ता है। वही सुखदुःख का अंत करने वाला है और वही सुख-दुःख को देने वाला है। यह निश्चय नय का अभिमत है।
यह आत्मा शरीर में आबद्ध है-कर्म शरीर के द्वारा नियंत्रित है । कर्मों के द्वारा ही यह सतत भव-भ्रमण करता है। यह कर्मवर्गणा का आकर्षण करता है, इसलिए सकर्मा है। यह क्वचित् पुण्यकर्म भी करता है, इसलिए सत्कर्मा है। यह क्वचित् कर्म का निरोध भी करता है, इसलिए निष्कर्मा है।
मोह के उदय से जो व्यक्ति कर्म-प्रवृत्ति करता है, वह सकर्मात्मा कहलाता है। सकर्मात्मा अशुभ कर्म का बंधन करता है और उससे ज्ञान आवृत होता है।
शुभ कर्म के बंधन से दर्शन आवृत होता है, वीर्य का हनन होता है और प्रसरणशील पौद्गलिक संयोगों की अनुकूलता नहीं रहती ।