Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 766
________________ समणसुत्तं ७४३ अ. ४ : स्याद्वाद (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है। उस अक्ष से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्यव और केवल। ६८७. अक्खस्स पोग्गलकया, जंदग्विन्दियमणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं, परोक्खमिह तमणुमाणं व॥ पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियां और मन ‘अक्ष' अर्थात् जीव से 'पर' (भिन्न) हैं। अतः उनसे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है, वैसे ही परोक्षज्ञान भी 'पर' के निमित्त से होता है। ६८८. होति परोक्खाई मइ.. सुयाइं जीवस्स परनिमित्ताओ। पुव्वावलद्धसंबंध सरणाओ वाणुमाणं व॥ जीव के मति और श्रुत-ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष हैं। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण से होने के कारण भी वे परनिमित्तक हैं।' ६८९. एगंतेण परोक्खं,लिंगिय-मोहाइयं च पच्चक्खं। इंदियमणोभवं जं, तं संववहार-पच्चक्खं॥ धूम आदि लिंग से होनेवाला श्रुतज्ञान तो एकान्तरूप से परोक्ष ही है। अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीनों ज्ञान एकांतरूप से प्रत्यक्ष ही हैं। किन्तु इन्द्रिय और मन से होनेवाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। . नय सूत्र ६९०. ज णाणीण वियप्पं, सुयभेयं वत्थुअंस-संगहणं। तं इह णयं पउत्तं, णाणी पुण तेण णाणेण॥ नय सूत्र श्रुतज्ञान के आश्रय से युक्त वस्तु के अंश को ग्रहण करनेवाले ज्ञानी के विकल्प को 'नय' कहते हैं। उस ज्ञान से जो युक्त है वही ज्ञानी है। ६९१. जम्हा ण णएण विणा, होइ णरस्स सियवाय-पडिवत्ती। तम्हा सो बोहव्वो, एयंतं हतुकामेण॥ नय के बिना मनुष्य को स्यादवाद का बोध नहीं होता। अतः जो एकांत का या एकांत आग्रह का परिहार करना चाहता है, उसे नय को अवश्य जानना चाहिए। ६९२. धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो। - तह इह वंछइ मूढो, णयरहिओ दव्वणिच्छिती॥ जैसे धर्मविहीन मनुष्य सुख चाहता है या कोई जल के बिना अपनी प्यास बुझाना चाहता है, वैसे ही मूढ़ जन नय के बिना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करना चाहता है। ६९३. तित्थयर-वयण-संगह विसेस-पत्थार-मूलवागरणी। दव्वढिओ य पज्जवणओ, य सेसा वियप्पा सिं॥ १. परनिमित्तक अर्थात् मन और इन्द्रियों की सहायता से होनेवाला ज्ञान। तीर्थंकरों के वचन दो प्रकार के हैं-सामान्य और विशेष। दोनों प्रकार के वचनों की राशियों के (संग्रह के) मूल प्रतिपादक नय दो ही हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। शेष सब नय इन दोनों के ही अवान्तर भेद हैं। २. द्रव्यार्थिक नय वस्तु के सामान्य अंश का प्रतिपादक है और पर्यायार्थिक विशेष अंश का।

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