Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 765
________________ आत्मा का दर्शन ६८१. अवहीयदित्ति ओही, सीमाणाणेत्तिं वण्णियं समए । तमोहिणाण त्तिणं बिंति ॥ ६८२. चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियं अणेयभेयगयं । मणपज्जव त्ति णाणं, जं जाणइ तं तु णरलोए ॥ भवगुणपच्चय-विहियं, ७४२ ६८३. केवलमेगं सुद्धं, सगल-मसाहारणं अनंतं च । पायं च नाणसद्दो, नाम - समाणाहिगरणोऽयं ॥ ६८४. संभिन्नं पासंतो, लोगमलोगं च सव्वओ सव्वं । तं नत्थि जं न पासइ, भूयं भव्वं भविस्सं च ॥ प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण ६८५. गेहणइ वत्थुसहावं, अविरुद्धं सम्मरूवं जं णाणं । भणियं खु तं पमाणं, पच्चक्खपरोक्खभेएहिं ॥ ६८६. जीवो अक्खो अत्थव्ववण तं पइ वट्टइ नाणं, भोयणगुणन्निओ जेणं । जे पच्चक्खं तयं विविहं ॥ खण्ड - ५ अंतर है। 'पूर्व' शब्द 'प' धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है पालन और पूरण। श्रुत का पूरण और पालन करने से मतिज्ञान पूर्व में ही होता है। अतः मतिपूर्वक ही श्रुत कहा गया है। ‘अवधीयते इति अवधिः' - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा पूर्वक रूपी पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसे आगम में सीमाज्ञान भी कहा है। इसके दो भेद हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । जो ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित, अचिंतित, अर्धचिंतित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान है। केवल शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। अतः केवलज्ञान एक है अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता से रहित है और उसके होने पर अन्य सब ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं, इसीलिए केवलज्ञान एकाकी है। मलकलंक से रहित होने से शुद्ध है। सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से सकल है। इसके समान और कोई ज्ञान नहीं है, अतः असाधारण है। इसका कभी अंत नहीं होता। अतः अनंत है। केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वतः परिपूर्ण रूप से जानता है। भूत, भविष्य और वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे केवलज्ञान नहीं जानता । प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण जो ज्ञान वस्तु-स्वभाव को यथार्थस्वरूप कोसम्यकरूप 'से जानता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो. भेद हैं- प्रत्यक्षप्रमाण और परोक्षप्रमाण । जीव को 'अक्ष' कहते हैं। यह शब्द 'अशु व्याप्तौ' धातु से बना है। जो ज्ञानरूप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में 'अश्' धातु से भी की जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है अक्ष अर्थात् जीव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियों से

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