Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 769
________________ आत्मा का दर्शन ७४६ खण्ड-५ ७१०. अहवा सिद्धे सहे, अथवा व्याकरण से सिद्ध शब्द में अर्थ का जो कीरइ जं किं पि अत्थववहरणं। व्यवहार किया जाता है, उसी अर्थ को उस शब्द के द्वारा तं खलु सद्दे विसयं, ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे देव शब्द के द्वारा उसका 'देवो' सहेण जह देवो॥ सुग्रहीत अर्थ देव अर्थात् सुर ही ग्रहण करना। ७११. सहारूढो अत्थो, अत्थारूढो तहेव पुण सहो। भणइ इह समभिरूढो, जह इंद पुरंदरो सक्को॥ जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ अपने वाचक अर्थ में. आरूढ़ है। उसी प्रकार प्रत्येक शब्द भी अपने-अपने अर्थ में आरूढ़ है। अर्थात् शब्दभेद के साथ अर्थभेद होता ही है। जैसे इन्द्र, पुरन्दर और शक्र तीनों शब्द देवों के राजा के बोधक हैं, तथापि इन्द्र शब्द से उसके ऐश्वर्य का बोध होता है, पुरन्दर से अपने शत्रु के पुरों का नाश करनेवाले का बोध होता है। इस प्रकार शब्द भेदानुसार अर्थभेद करनेवाला 'समभिरूढ़नय' है। (यह शब्द. को अर्थारूढ़ और अर्थ को शब्दारूढ़ कहता है।). ७१२. एवं जह सइत्थो, संतो भूओ तदन्नहाऽभूओ। तेणेवंभूय-नओ, सइत्थपरो विसेसेण॥ एवं अर्थात् जैसा शब्दार्थ हो उसी रूप में जो व्यवहृत होता है वह भूत अर्थात् विद्यमान है। और जो शब्दार्थ से अन्यथा है वह अभूत अर्थात् अविद्यमान है। जो ऐसा मानता है वह ‘एवंभूतनय' है। इसलिए शब्दनय और समभिरूढनय की अपेक्षा एवंभूतनय विशेषरूप से शब्दार्थ तत्पर नय है। ७१३. जं जं करेइ कम्म, देही मणवयणकायचेट्ठादो। जीव अपने मन, वचन व काय की क्रिया द्वारा जो-जो तं तं खु णामजुत्तो, एवंभूओ हवे स णओ॥ __ काम करता है, उस प्रत्येक कर्म का बोधक अलग-अलग शब्द है और उसीका उस समय प्रयोग करनेवाला एवंभूतनय है। जैसे मनुष्य को पूजा करते समय ही पुजारी और युद्ध करते समय ही योद्धा कहना। स्याद्वाद व सप्तभंगीसूत्र स्याद्वाद-सप्तभंगी सूत्र ७१४. अवरोप्परसावेक्खं, ___णायविसयं अह पमाणविसयं वा। तं सावेक्खं भणियं, णिरवेक्खं ताण विवरीयं॥ नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर-सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष कहा जाता है।' ७१५. णियम-णिसेहण-सीलो, णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो। सो सियसो भणिओ, जो सावेक्खं पसाहेदि॥ १. प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा जो सदा नियम का निषेध करता है और निपात रूप से सिद्ध है, उस शब्द को 'स्यात्' कहा गया है। यह वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। रखता है, तभी वह विषय सापेक्ष कहलाता है।

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