Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 772
________________ समणसुत्तं ७४९ अ. ४ : स्याद्वाद गमक नहीं होते, क्योंकि पृथक्-पृथक अवस्था में भी वे गमक नहीं हैं। इसका कारण यह है कि निरपेक्ष होने के कारण वैरी की भांति परस्पर विरोधी हैं। ७३०. सव्वे समयंति सम्म, चेगवसाओ नया विरुद्धा वि। भिच्च-ववहारिणो इव, राओदासीण-वसवत्ती॥ जैसे नाना अभिप्रायवाले अनेक सेवक एक राजा, स्वामी या अधिकारी के वश में रहते हैं, या आपस में लड़ने-झगड़नेवाले व्यवहारी-जन किसी उदासीन (तटस्थ) व्यक्ति के वशवर्ती होकर मित्रता को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही ये सभी परस्पर विरोधी नय स्याद्वाद की शरण में जाकर सम्यक्भाव को प्राप्त हो जाते हैं। अर्थात् स्याद्वाद की छत्रछाया में परस्पर विरोध का कारण सावधारणता दूर हो जाती है और वे सब सापेक्षतापूर्वक एकत्र हो जाते हैं। . मा ७३१. जमणेगधम्मणो वत्थुणो,तदंसे च सव्वपडिवत्ती। - अंध व्व गयावयवे तो, मिच्छादिट्ठिणो वीसु॥ जैसे हाथी के पूंछ, पैर, सूंड आदि टटोलकर एक-एक अवयव को ही हाथी माननेवाले जन्मान्ध लोगों का अभिप्राय मिथ्या होता है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके 'हमने पूरी वस्तु जान ली है' ऐसी प्रतिपत्ति करनेवालों का उस वस्तु विषयक ज्ञान मिथ्या होता है। ७३२. जं पुण समत्तपज्जाय तथा जैसे हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को वत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। हाथी जाननेवाले चक्षुष्मान् का ज्ञान सम्यक् होता है, वैसे सम्मत्तं चक्खुमओ, __ ही समस्त नयों के समुदाय द्वारा वस्तु की समस्त पर्यायों सव्व-गयावयव-गहणे व्व॥ को जाननेवाले का ज्ञान सम्यक होता है। ७३३. पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं। ___पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥ संसार में ऐसे बहुत-से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवां भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवां भाग ही शास्त्रों में निबद्ध है। ७३४. सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं।। इसलिए जो पुरुष अपने मत की प्रशंसा करते हैं तथा जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ दूसरे के वचनो की निन्दा करते है और इस तरह अपना पांडित्य-प्रदर्शन करते हैं, वे संसार में मजबूती से जकड़े हुए हैं-दृढ़-रूप में आबद्ध हैं। ७३५. णाणाजीवा णाणाकम्म, णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयण-विवाद,सग-पर-समएहिं वज्जिज्जा॥ इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं. नाना प्रकार की लब्धियां हैं, इसलिए कोई

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