Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 738
________________ समणसुत्तं .७१५ अ. २: मोक्षमार्ग ५१२. सो नत्थि इहोगासो,लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि। इस संसार में बालाग्र जितना भी स्थान ऐसा नहीं है ____ जम्मणमरणाबाहा, अणेगसो जत्थ न य पत्ता॥ जहां इस जीव ने अनेक बार जन्म-मरण का कष्ट न भोगा हो। ५१३. वाहि-जर-मरण-मयरो, निरंतरुप्पत्ति-नीरनिकुरूंबो। परिणामदारुणदुहो, अहो दुरंतो भवसमुद्दो॥ अहो! यह भवसमुद्र दुरन्त है-इसका अंत बड़े कष्ट से होता है। इसमें व्याधि तथा जरा-मरणरूपी अनेक मगरमच्छ हैं, निरन्तर उत्पत्ति या जन्म ही जलराशि है। इसका परिणाम दारुण दुःख है। ५१४. रयणत्तय-संजुत्तो, जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं। संसारं तरइ जदो, रयणत्तय-दिव्व-णावाए। (वास्तव में) रत्नत्रय से सम्पन्न जीव ही उत्तम तीर्थ (तट) है, क्योंकि वह रत्नत्रयरूपी दिव्य नौका द्वारा संसार-सागर को पार करता है। ५१५. पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्म-फल-मणुहवंताणं।। यहां प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही ____को कस्स जए सयणो? भोगता है। ऐसी स्थिति में यहां कौन किसका स्वजन है को कस्स व परजणो भणिओ?॥ और कौन किसका पर जन? ५१६. एगो मे सासओ अप्पा, नागदंसणसंजुओ। : सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वें संजोगलक्खणा॥ ज्ञान और दर्शन से संयुक्त मेरी एक आत्मा ही शाश्वत हैं शेष सब भाव संयोगलक्षणवाले हैं उनके साथ मेरा संयोगसंबंध मात्र है। वे मुझसे अन्य ही है। ५१७. संजोगमूला जीवेणं, पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोग-संबंध, सव्वभावेण वोसिरे॥ इस संयोग के कारण ही जीव दुःखों की परंपरा को प्राप्त हुआ है। अतः संपूर्णभाव से मैं इस संयोग-संबंध का त्याग करता हूं। ५१८. अणुसोअइ-अन्नजणं, अन्न-भवंतर-गयं तु बालजणो। नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुहे॥ अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर में कष्ट भोगनेवाली अपनी आत्मा की चिंता भी नहीं करता! ५१९. अन्नं इमं सरीरं, अन्नोऽहं बंधवाविमे अन्ने। .' एवं नाऊण खमं, कुसलस्स न तं खमं काउं? यह शरीर अन्य है, मैं अन्य हूं, बंधु-बान्धव भी मुझसे अन्य हैं। ऐसा जानकर कुशल व्यक्ति उनमें आसक्त न हो। ५२०. जो जाणिऊण देहं, जीवसरूवादु तच्चदो भिन्ने। अप्पाणं पिय सेवदि, कज्जकरं तस्स अण्णत्तं॥ जो शरीर को जीव के स्वरूप से तत्त्वतः भिन्न जानकर आत्मा का अनुचिंतन करता है, उसकी अन्यत्व भावना कार्यकारी है। ५२१. मंसठिसंघाए, मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिहे। असुइं परिस्सवंते सुहं सरीरम्मि किं अत्थि॥ मांस और हड्डी के मेल से निर्मित, मल-मूत्र से भरे, नौ छिद्रों के द्वारा अशुचि पदार्थ को बहानेवाले शरीर में

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