Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 752
________________ समणसुत्तं ७२९ अ. ३ : तत्त्व-दर्शन ६०४. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, जैसे-जैसे योग अल्पतर होता है, वैसे-वैसे बंध भी तहा तहा अप्पतरो से बंधो। अल्पतर होता है। योग का निरोध हो जाने पर (वैसे ही) निरुद्ध-जोगिस्स व से ण होति, बंध नहीं होता; जैसे कि छेदरहित जहाज में जल प्रवेश अछिहपोतस्स व अंबुणाथे॥ नहीं करता। ६०५. मिच्छत्ताविरदी वि य, कसाय जोगा व आसवा होति। संजम-विराय-दसण-जोगाभावो य संवरओ॥ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये आस्रव हैं। संयम, विराग, दर्शन और योग का अभाव-ये संवर हैं। ६०६. रुंधिय छिहसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि। मिच्छत्ताइ-अभावे, तहजीव संवरो होइ। जैसे जलयान के हजारों छेद बंद कर देने पर उसमें पानी नहीं घुसता, वैसे ही मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर होता है। ६०७. सब्वभूयऽप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी के पापकर्म का बंध नहीं होता। ६०८. मिच्छत्तासव-दारं, रुंभइ सम्मत्तं दिढ-कवाडेण। हिंसादि-दुवाराणि वि, दिढ-वय-फलहेहिं संभंति॥ मुमुक्ष सम्यक्त्वरूपी दृढ कपाटों से मिथ्यात्वरूपी आस्रव द्वार को रोकता है तथा दृढ व्रतरूपी कपाटों से हिंसा आदि द्वारों को रोकता है। ६०९-६१०. जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। . भवकोडीसंचियं कम्मं, तवसा निज्जरिज्जइ॥ जैसे बड़ा तालाब जल के मार्ग को बंद करने से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है, वैसे ही पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने से संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म तप से निर्जरा को प्राप्त होता है-नष्ट होता है। ६११. तवसा चेव ण मोक्खो , संवर-हीणस्स होइ जिणवयणे। ... ण हुसोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं॥ यह जिन-वचन है कि संवरविहीन मुनि को केवल तप करने से ही मोक्ष नहीं मिलता: जैसे कि पानी के आने का स्रोत खुला रहने पर तालाब का पूरा पानी नहीं सूखता। ६१२. जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं वासकोडीहिं। अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों वर्षों में जितने तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं॥ कर्मों का क्षय करता है, ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा उच्छवास मात्र में उतने कर्मों का नाश कर डालता है। और ६१३. सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई। - एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए॥ जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं। .

Loading...

Page Navigation
1 ... 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792