Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 745
________________ ७२२ खण्ड-५ आत्मा का दर्शन __ संलेखना सूत्र संलेखना सूत्र ५६७. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो॥ शरीर को नौका जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है, जिसे महर्षिजन (मोक्ष के गवेषक) तैर जाते हैं। ५६८. बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मक्खयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे॥ ऊर्ध्व अर्थात् मुक्ति का लक्ष्य रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य विषयों की आकांक्षा न रखे। पूर्वकर्मों का क्षय करने के लिए ही इस शरीर को धारण करे। . ५६९. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं तम्हा अवस्समरणे, वरं खु धीरत्तणे मरिउं॥ निश्चय ही धैर्यवान् को भी मरना है और कापुरुष को भी मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है, तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उत्तम है। ५७०. इक्कं पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि। तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सम्मओ होइ॥ ___ एक पण्डितमरण (ज्ञानपर्दूक मरण) सैंकड़ों जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे मरण सुमरण हो जाए। ५७१. इक्कं पंडियमरणं,पडिवज्जइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं, काहिइ अंतं अणंताणं॥ ५७२. चरे पयाइं परिसंकमाणो, जंकिंचि पासं इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी॥ असंभ्रान्त (निर्भय) सत्पुरुष एक पण्डितमरण को प्राप्त होता और शीघ्र ही अनन्त-मरण-बार-बार मरण का अंत कर देता है। साधक पग-पग पर दोषों की आशंका (संभावना) को ध्यान में रखकर चले। छोटे से छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे सावधान रहे। नये-नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे। जब जीवन तथा देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे। ५७३. तस्स ण कप्पदि भत्त पइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो।। सो मरणं पत्थितो, होदि हु सामण्ण-णिब्विण्णो॥ (किन्तु) जिसके सामने (-अपने संयम, तप आदि साधना का) कोई भय या किसी भी तरह की क्षति की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है। फिर भी वह यदि मरना ही चाहता है तो कहना होगा कि वह मुनित्व से ही विरक्त हो गया है। ५७४. संलेहणा य दुविहा,अभिंतरिया य बाहिरा चेव। अभिंतरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे॥ संलेखना दो प्रकार की है-आभ्यन्तर और बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य संलेखना है। ५७५. कसाए पयणुए किच्चा अप्पाहारे तितिक्खए। अह भिक्ख गिलाएज्जा,आहारस्सेव अन्तियं॥ (संलेखना धारण करनेवाला साधु) कषायों को कृश करके धीरे-धीरे आहार की मात्रा घटाये। यदि वह रोगी

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