Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 746
________________ समत्तं ५७६. न वि कारणं तणमओ संथारो, वियफासुया भूमी । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्स || ५७७- ५७८. न वि तं सत्थं च विसं च, दुप्पउत्तु-व्व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पु व्व पमाइणो कुद्धो ॥ ७२३ भावसलं, अणुद्धियं उत्तमट्ठकालम्मि । दुल्लह-बोहीयत्तं, अनंत संसारियत्तं च ॥ ५७९. तो उद्धरंति गारव-रहिया मूलं पुणब्भव-लयाणं । मिच्छादंसण- सल्लं, मायासल्लं नियाणं च ॥ १८०. मिच्छदंसण - रत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं, दुलहा भवे बोही ॥ १८१. सम्मदंसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥ ८२. आरोहणा कज्जे, परियम्मं सव्वदा वि कायव्वं । सुहसज्झाऽऽराहणा होइ ॥ परियम्मभाविदस्स हु, १८३-५८४. जह रायकुलपसूओ, जोगं णिच्चमवि कुणइ परिकम्मं । तो जिदकरणो जुद्धे, कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥ इय सामण्णं साधूवि, कुण्णदि णिच्चमवि जोगपरियम्मं । तो जिदकरणो मरणे, ज्झाणसमत्थो भविस्सति ॥ अ. २ : मोक्षमार्ग है- शरीर अत्यंत क्षीण हो गया है तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे। . संलेखनाधारी के लिए प्रासुक भूमि में तृणों का संस्तारक लगाया जाता है, जिस पर वह विश्राम करता है। इसी को जिसका मन विशुद्ध है, उसका संस्तारक' न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है। उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है। दुष्प्रयुक्त शस्त्र, विष, भूत तथा दुष्प्रयुक्त यंत्र तथा कुद्ध सर्प आदि प्रमादी का उतना अनिष्ट नहीं करते, जितना अनिष्ट समाधिकाल में मन में रहे हुए माया, मिथ्यात्व व निदान शल्य करते हैं। इससे बोधि (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र) की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है तथा संसार का अंत नहीं होता । अतः अभिमान-रहित साधक पुनर्जन्मरूपी लता के मूल अर्थात् मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य व निदानशल्य को अंतरंग से निकाल फेंकते हैं। इस संसार में जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त होकर निदानपूर्वक तथा कृष्णलेश्या की प्रगाढ़ता सहित मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि - लाभ दुर्लभ है। जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान - रहित तथा शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है । (इसलिए) मरण - काल में रत्नत्रय की सिद्धि या सम्प्राप्ति के अभिलाषी साधक को चाहिए कि वह पहले से ही निरन्तर परिकर्म अर्थात् सम्यक्त्वादि का अनुष्ठान करता रहे, क्योंकि परिकर्म या अभ्यास करते रहनेवाले की आराधना सुखपूर्वक होती है। राजकुल में उत्पन्न राजपुत्र नित्य समुचित शस्त्र अभ्यास करता रहता है तो उसमें दक्षता आ जाती है और वह युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है। इसी प्रकार जो समभावी साधु नित्य ध्यान अभ्यास करता है, उसका चित्त वश में हो जाता है और मरणकाल में ध्यान करने में समर्थ हो जाता है। लक्ष्य करके यह भाव कथन किया गया है।

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