Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 731
________________ आत्मा का दर्शन ७०८ खण्ड-५ ४५२. ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उ सुहावहा। गिरा, कन्दरा आदि भयंकर स्थानों में, आत्मा के उग्गा जहा धरिज्जति, कायकिलेसं तमाहियं॥ लिए सुखावह, वीरासन आदि उग्र आसनों का अभ्यास करना या धारण करना कायक्लेश नामक तप है। ४५३. सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए॥ सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा अर्थात् कायक्लेशपूर्वक आत्मा को भावित करना चाहिए। ४५४-४५५. ण दुक्खं ण सुखं वा वि, जहा-हेतु तिगिच्छिति। तिगिच्छिए सुजुत्तस्स, दुक्खं वा जइ वा सुहं॥ मोहक्खए उ जुत्तस्स दुक्खं वा जइ वा सुह। मोहक्खए जहाहेउ, न दुक्खं न वि वा सुहं॥ रोग की चिकित्सा में रोगी का न सुख ही हेतु होता है, न दुःख ही। चिकित्सा कराने पर रोगी को दुःख भी हो । सकता है और सुख भी। इसी तरह मोह के क्षय में सुख और दुःख दोनों हेतु नहीं होते। मोह के क्षय में प्रवृत्त होने पर साधक को सुख भी हो सकता है और दुःख भी।' आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर जप ४५६. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग-इस तरह आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है। ४५७. वद-समिदि-सील संजम-परिणामो करणणिग्गहो भावो। सो हवदि पायच्छित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो॥ व्रत, समिति, शील,, संयम-परिणाम तथा इन्द्रियनिग्रह-भाव ये सब प्रायश्चित्त तप हैं जो निरन्तर करणीय हैं। ४५८. कोहादि सगम्भाव __क्खयपहुदि-भावणाए णिग्गहणं। पायलियपदि-भावणाए णिग्गहणं। को णियगुणचिंता य णिच्छयदो॥ ४५९. गंताणंतभवेण, समज्जिअ-सुहअसुहकम्म संदोहो। तवचरणेण विणस्सदि, पायच्छित्तं तवं तम्हा॥ क्रोध आदि स्वकीय भावों के क्षय या उपशम आदि की भावना करना तथा निजगुणों का चिंतन करना निश्चय-प्रायश्चित्त तप है। अनन्तानन्त भवों में उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के समूह का नाश तपश्चरण से होता है। अतः तपश्चरण करना प्रायश्चित्त है। ४६०. आलोयण पडिकमणं, प्रायश्चित्त दस प्रकार का है-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभयविवेगो तहा विउस्सग्गो। उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार तथा तव छेदो मूलं वि य, परिहारो चेव सद्दहणा॥ श्रद्धान। १. कायक्लेश तप में साधक को शरीरगत दुःख या बाह्य व्याधियों को सहन करना पड़ता है। लेकिन वह मोहमय की साधना का अंग होने से अनिष्टकारी नहीं होता।

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