Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 732
________________ समणसुत्तं ७०९ अ.२: मोक्षमार्ग ४६१. अणाभोगकिदं कम्म, जं किं पि मणसा कदं। तं सब्दं आलोचेज्ज ह अव्वाखित्तेण चेदसा॥ जो अनाभोगकृत कर्म मन से भी किये हो। उनकी सबकी अव्याक्षिप्त चित्त से आलोचना करनी चाहिए।' ४६२. जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ। तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को वि॥ जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक (मां के समक्ष) व्यक्त कर देता है, वैसे ही साधु को भी अपने समस्त दोषों की आलोचना माया-मद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए। ४६३.४६४. जह कंटएण विद्धो, जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा __ सव्वंगे वेयणहिओ होइ। होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य तह चेव उद्धियम्मि उ, अर्थात सर्वांग सखी हो जाता है. वैसे ही अपने दोषों को निस्सल्लो निव्वुओ होइ॥ प्रकट न करनेवाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेण दुक्खिओ होइ। होकर सुखी हो जाता है-मन में कोई शल्य नहीं रह सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ॥ जाता। ४६५. जो पस्सदि अप्पाणं,समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदिजाणह,परमजिणिंदस्स उवएसं॥ अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है। ऐसा जिनेन्द्र का उपदेश है। ४६६. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं। गुरुभत्ति भावसुस्सूसा,विणओ एस वियाहिओ॥ गुरु तथा वृद्धजनों के आने पर खड़े होना, हाथ जोड़ना, उन्हें उच्च आसन देना, भावपूर्वक भक्ति तथा सेवा करना विनय तप है। ४६७. सण-णाणे विणओ, · चरित्त-तव-ओवचारिओ विणओ। .. ' पंचविहो खलु विणओ, पंचम-गइ-णाइगो भणिओ॥ दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय-ये विनय तप के पांच भेद कहे गये हैं, जो पंचम गति अर्थात मोक्ष में ले जाते हैं। ४६८. एकम्मि हीलियम्मि, हीलिया हंति ते सव्वे। एकम्मि पूइयम्मि पूइया हुंति सव्वेते॥ . संघ के एक सदस्य के तिरस्कार में सबका तिरस्कार होता है और एक की पूजा में सबकी पूजा होती है। ४६९. विणओ सासणे मूलं विनय जिनशासन का मूल है। संयम तथा तप से विणीओ संजओ भवे। विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा विणयाओ विप्पमुक्कस्स, धर्म और कैसा तप? कओ धम्मो को तवो?॥ १. मन-वचन-काय द्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ कर्म दो प्रकार के होते हैं-आभोगकृत और अनाभोगकृत। दूसरों 'द्वारा जाने गये कर्म आभोगकृत हैं और दूसरों द्वारा न जाने गये कर्म अनाभोगकृत हैं। दोनों प्रकार के कर्मों की तथा उनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु या आचार्य के समक्ष निराकुल चित्त से करनी चाहिए।

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