Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 690
________________ समणसुत्तं ६६७ अ. १ : ज्योतिर्मुख १३३. जति-उपसंत-कसाओ. यदि कषाय की उपशांत स्थिति को प्राप्त पुरुष भी लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं। अंतहीन पतन (विशुद्ध अध्यवसाय की अनन्त हानि) को • नहु भे वीससियव्वं, प्राप्त हो जाता है, फिर शेष रहे हुए स्वल्प कषाय पर कैसे थोवे वि कसाय-सेसम्मि॥ विश्वास किया जा सकता है? १३४. अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ॥ ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मानकर विश्वस्त हो नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योंकि इनका स्वल्प अंश भी बढते-बढते बहुत हो जाता है। १३५. कोहो पाइं पणासेइमाणो विणय-नासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥ क्रोध प्रीति को नष्ट करता है. मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है। १३६. उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे॥ शांति से क्रोध को क्षीण करें, मृदुता से मान को, ऋजुता से माया को और संतोष से लोभ को जीतें। १३७. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावेहिं अप्पाणं, अज्झप्पेण समाहरे॥ जैसे कछुआ (सियार आदि से बचने के लिए) अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही साधक इंद्रिय-विकारों से बचने के लिए अपनी इंद्रियों को एकाग्रता और वैराग्य के द्वारा अध्यात्म में समेट लेता है। १३८. से जाणमजाणं वा कटु आहम्मि पयं। __ संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे॥ जाने या अनजाने कोई अधर्म कार्य कर बैठे, तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा ले। फिर दूसरी बार वह कार्य न करे। १३९. धम्माराम चरे भिक्ख धिइमं धम्म-सारही। धम्माराम-रए दन्ते. बंभचेर-समाहिए॥ धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे। अपरिग्रह सूत्र अपरिग्रह सूत्र १४०. संग-निमित्तं मारइ, भणइ अलीअं करेइ चोरिक्कं। सेवह मेहुणमिच्छं, अप्परिमाणं कुणइ जीवो॥ जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित इच्छा करता है। (इस प्रकार परिग्रह पांचों पापों की जड़ है।) १४१. चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि। अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चई॥ जो अणुमात्र भी सजीव या निर्जीव वस्तु का परिग्रह करता है अथवा किसी परिग्रह करने वाले का अनुमोदन करता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता।

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