Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 710
________________ समणसुतं २७३. मासे- मासे तु जो बालो, न सो सुक्खाय- धम्मस्स, २७४. चारित्तं खलु धम्मो, मोह- खोह - विहीणो, धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो । २७६. सुविदिद- पयत्थ- सुत्तो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥ २७५. समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो, सहाव - आराहणा भणिया ।। समणो सम-सुह- दुक्खो, संजम-तव-संजुदो विगदरागो । भणिदो सुद्धोवओओ ति ॥ कुसग्गेणं तु भुंजए। कलं अग्घइ सोलसिं ॥ २७७. सुखस्स य सामण्णं, भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । . सुखस्स य णिव्वाणं, सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ॥ २७८. अइसयमाद - समुत्थं, विसयातीदं अणोवममणंतं । अब्बुच्छिन्नं च सुहं, सुद्धवओग - प्पसिद्धाणं ॥ २७९. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्व दव्वेसु । णाssसवदि सुहं असुहं, सम सुह- दुक्खस्स भिक्खुस्स ॥ समन्वय ६८७ १८०. णिच्छय सज्झ - सरूवं, सराय तस्सेव साहणं चरणं । पढिज्जमाणं पबुज्झेह॥ • तम्हा दो वि य कमसो, अ. २ : मोक्षमार्ग जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) मनुष्य मास-मास की तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतना आहार करे, तो भी सुआख्यात धर्म (सम्यक् चारित्र) की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता । वास्तव में चारित्र ही धर्म है। जो धर्म है वह समता है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही समता है। समता, मध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र धर्म और स्वभाव-आराधना-ये सब शब्द एकार्थक हैं। जिसने (स्व- द्रव्य व पर- द्रव्य के भेद विज्ञान के द्वारा ) पदार्थों तथा सूत्रों को भलीभांति जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, विगतराग है, सुख-दुःख में सम है, उसी श्रमण को शुद्ध उपयोग (शुद्ध चैतन्य की प्रवृत्ति वाला) कहा जाता है। शुद्ध उपयोग वाले पुरुष के ही श्रामण्य होता है, दर्शन और ज्ञान होता है। वही निर्वाण और सिद्ध पद प्राप्त करता है। उसे मैं नमस्कार करता हूं। जिनके शुद्ध उपयोग सिद्ध हो गया है, उन्हें अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत (अतीन्द्रिय), अनुपम, अनन्त और निर्बाध सुख प्राप्त होता है। जिसका किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है तथा जो सुख-दुःख में सम है, उस भिक्षु के शुभअशुभ कर्मों का आस्रव नहीं होता । समन्वय निश्चयचारित्र ( वीतराग चारित्र) साध्य रूप है, व्यवहारचारित्र (सराग चारित्र) उसका साधन है । इसलिए दोनों चारित्रों का क्रमशः प्रतिपादन किया गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792