________________
आत्मा का दर्शन
२६५. सक्किरिया विरहातो,
इच्छित संपावयं ण नाणं त्ति । मम्गण्णू वाऽचेट्ठो,
वात- विहीणोऽधवा पोतो ॥
२६६. सुबहु पि सुयमहीयं,
किं काहि चरण- विप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता,
दीव सय सहस्स- कोडी वि॥
२६७. थोवम्मि सिक्खिदे जिणs,
जो पुण चरितहीणो,
बहुसुदं जो चरित संपुण्णो ।
निश्चय चारित्र
२६८. णिच्छय-णयस्स एवं,
किं तस्स सुदेण बहुएण ॥
अप्पा अप्पम्म अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरितो,
जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥
२६९. जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणा पुण्ण पावाणं । तं चारितं भणियं अवियप्यं कम्म रहिएहिं ॥
२७०. जो पर- दव्वम्मि सुहं,
अहं रागेण कुणदि जदि भावं । सो सग चरित्त भट्ठो,
पर चरिय चरो हवदि जीवो
२७१. जो सव्व संग मुक्कोऽणन्नमणो,
जाणदि पस्सदि णियदं,
अप्पणं सहावेण ।
सो सग चरियं चरदि जीवो।
२७२. परमट्ठम्हि दु अठिदो,
तं सव्वं बाल-तवं,
६८६
जो कुणदि तवं वदं च धारेई ।
बाल-वदं बिंति सव्वण् ॥
खण्ड- ५
( शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का ज्ञाता चले बिना और जलपोत अनुकूल वायु के बिना गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच सकता।
चारित्र शून्य पुरुष का पढा हुआ विपुल श्रुतज्ञान भी क्या करेगा? जैसे कि अंधे के आगे जलाए हुए लाखोंकरोड़ों दीपकों का प्रकाश उसे आलोकित नहीं करता ।
जो चारित्र से सम्पन्न है, वह अल्पज्ञानी होने पर भी बहुश्रुत को जीत लेता है और जो चारित्र से हीन होता है; उसको बहुत ज्ञान से भी क्या लाभ होगा ?
निश्चय चारित्र
निश्चय नय के अनुसार आत्मा आत्मा के लिए आत्मा में सुरत (लीन) होता है, वही सुचरित्र है- सम्यक चारित्र है। ऐसा सम्यक् चारित्र सम्पन्न योगी निर्वाण कों प्राप्त होता है।
-
जिसे जानकर योगी पाप-पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही अर्हतों ने निर्विकल्प चारित्र कहा है।
जो राग के वशीभूत होकर परं द्रव्यों में शुभाशुभ भाव करता है, वह जीव अपने चारित्र से च्युत होकर पराए चरित्र का आचरण करता है।
जो सर्व संग (आसक्ति) से मुक्त होकर तथा समग्र मानसिक चेतना को आत्मा में नियोजित कर आत्मा को चैतन्यमय रूप में सतत जानता देखता है वह पुरुष अपने चरित्र का आचरण करता है।
जो परमार्थ में स्थित नहीं है उसके तपश्चरण वा व्रताचरण आदि सबको सर्वज्ञ देव ने बालतप और बालव्रत कहा है।