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ढाई हजार वर्ष पूर्व के जैन-संघ में
डा० डब्ल्यू नोर्मन ब्राउन
अभ्यला, दक्षिण-पूर्व एशियाई प्रदेश-अध्ययन विभाग तथा अध्यापक, संस्कृत, पेस्थालवेनिया विश्वविद्यालय (यू० एस०ए०)
तेरापंथ सम्प्रदाय के निकट सम्पर्क में आने का सौभाग्य मुझे तभी प्राप्त हुआ जब कि मैं प्राचार्यश्री और उनके शिष्य साधु-साध्वियों के तथा श्रावक-श्राविकानों के परिचय में आया। जब कभी मैं जैनों से मिलता है, मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होती है और प्राचार्यश्री तुलसी के दर्शन पाकर भी मैंने यही अनुभूति की है।
मेरे लिए वह एक मूल्यवान् एवं आनन्ददायक समय था जब कि प्राचार्यश्वा से बातचीत करने का तथा गोष्ठी में भाग लेने का अवसर मुझे मिला था। प्राचार्यश्री की स्वयं की विद्वत्ता और उनके साधु-साध्वियों की विद्वता से भी, कोई भी व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। मुझे यह भी माश्चर्य हुमा कि उनके श्रावकों में भी यह क्षमता है कि वे गोष्ठी में चचित तात्त्विक विषयों को, जो कि गुजराती, संस्कृत और प्राकृत आदि भाषाओं में होती रही, समझ सकते थे। यह तो मुझे, अत्यधिक ही अद्भुत लगा, जब कि एक साधु बिना किसी पूर्व तयारी के प्राकृत भाषा में भाषण करने लगे। इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचार्यश्री के मार्ग-दर्शन में उनका सम्प्रदाय जैन दर्शन और सिद्धान्तों का परिश्रम पूर्वक अध्ययन और विकास कर रहा है।
मैं यह मानता हूँ कि आचार्यश्री के साथ वार्तालाप करने से मुझे तेरापथ के विशिष्ट सन्देश की जानकारी हुई है। उनसे तेरापंथ के पादों, पद्धतियो, संघव्यवस्था, विश्व-शान्ति की दिशा में उसके प्रयत्नों आदि के विषय में स्पष्ट और अधिकारपूर्ण जानकारी मुझे प्राप्त हुई है। आचार्यश्री के साथ के मेरे सम्पर्क के समय मुझे यह अनुभूति होती थी, मानो मैं ढाई सहस्र वर्ष पूर्व के किमी जैन-मघ में प्रविष्ट हुआ हूँ।