Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 301
________________ अध्याय ] पायाभूति : एक अध्ययन [ २८७ कर मानव को मावाभिमुख करने का सफल प्रयास किया है। कहीं-कहीं तो प्राचार्यश्री की स्वयं की पंक्ति भी एक लोकोक्ति बन गई है। भोज्य को पहचानने से पेट बोलो कर भरा। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि प्राचार्यश्री ने 'भाषाढ़भूति' की भाषा को बहुरंगी बनाया है। प्राचार्यश्री भाषा के अनुगत न होकर भाषा उनकी अनुगामी है। 'भाषाढभूति' प्रसाद की तरह तत्सम शब्दों की प्रधानता तथा गुप्त जी की भांति अप्रचलित संस्कृत शब्दों का अभिनव प्रयोगों का समवायी रूप है। 'भाषाभूति' में मुख्यतः दोहा, सोरठा तथा गीतिक छन्दों का प्रयोग अधिक हुआ है, परन्तु काव्य का सबसे आकर्षक रूप प्रबन्ध काव्य में प्रगीत का अभिनव प्रयोग है। कवि ने विभिन्न राग-रागिनियों में कविता कामिनी को सँवारा है। प्राचीन एवं अर्वाचीन हिन्दी तथा राजस्थानी लोक गीतों के संगीत तथा प्राधुनिक प्रसिद्ध लयों को काव्य में गंजित किया है। प्रगीत काव्य की अभिव्यक्ति प्रस्तुत रचना में विभिन्न स्थलों पर प्रस्फुटित हुई है। विविध घटनाओं तथा भावनाओं को व्यक्त करते हुए लेखक ने छन्द परिवर्तित किये हैं, जिससे विभिन्नताओं को सुकुमारता दृष्टिगत होती है । जहाँ संगीत मानव की हत्तन्त्री को झंकृत करता है, वहाँ वह काव्यमय होकर मानव की भावनाओं को प्रांज्जल करने में अपना सानी नहीं रखता । लेखक ने संगीत को काव्यमय तथा काव्य को संगीतमय बनाकर अनात्मवाद के गहनतम में सोये हुए स्वार्थी मानव को उद्बोधित करने का सफल प्रयास किया है। सरसता, रमणीयता तथा शब्दों और अर्थों में प्रदोषता प्रादि काव्य के मुख्य गुण माने जाते है। रसयुक्त तथा दोषमुक्त काव्य ही रमणीयता अथवा सुन्दरता को कोटि में पा सकता है और कविता में रमणीयता अथवा सुन्दरता लाना अलंकारों का विशेष काम है। मानव सौन्दर्य प्रेमी होता है, यही कारण है कि वह प्रागैतिहासिक काल के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भी सुन्दरता लाने का प्रयास करता है। काव्य क्षेत्र में भी सुन्दरता के लिए ही अलंकारों का आविर्भाव हुआ है। प्रस्तुत काव्य में अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा, रूपक, उदाहरण आदि अलंकारों का मुख्यत: प्रयोग हुप्रा है। अन्य अलंकार भी यत्र-तत्र दिखाई देते हैं । अलंकारों में किस प्रकार पाठक की अांखों के मागे वयं विषय का चित्र-सा खिच जाता है, यह निम्न पंक्तियों में देखिए माध्यास्मिक मार्मिक षामिक उनके भाषण का अद्भुत प्रोज, व्यक्ति व्यक्ति करने लग जाते अपने अन्तर मन को खोज, जीवन दर्शन मुख्य विषय पा जिनके पावन प्रवचन का, पूंगी पर ज्यों नाग डोलने, लगता था मन जन-जन का। उपर्युक्त पंक्तियों में अलंकारों की कैसी छटा विद्यमान है। अन्त्यानुप्रास, पुनरुक्तिप्रकाश तथा उपमा अलकारों का प्रयोग किस मुन्दर ढंग से किया गया है । जिस प्रकार पूंगी पर सर्प मन्त्रमुग्ध होकर झूमने लगत है, उसी प्रकार सभास्थल में बैठा हुआ जनसमुदाय भी धर्माचार्य प्राषाढ़ भूति का पावन उपदेशामृत मग्न होकर पान कर रहा है। इस प्रकार अलंकारों का प्रयोग कर काव्य को द्विगुणित सौन्दर्य प्रदान करना प्राचार्यश्री की अद्भुत मूझ का परिचायक है। इसी प्रकार रूपक का भी एक उदाहरण देखिए होंगे श्री प्राचार्यदेव ही, लाखों पतितों के पावक। होगा यही विनोद पूज्य-पावाम्बुज का नन्हा सावक। 'साहित्य दर्पण' के लेखक ने लिखा है-वाक्यं रसात्मकं काव्यम् अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य होता है। रस हीन रचना काव्य की प्रथम कोटि में माती है । रस वह अपार्थिव पदार्थ होता है, जिसका पान कर पाठक इस लोकिक संसार से दूर वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से प्रोत-प्रोत होता है तथा पात्र के सुख-दुख से स्वयं को तादात्म्य कर उसके सुख-दुःख को अपना मानने लगता है। 'प्राषाढ़भूति' में शान्त रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। यही इसमें प्रमुख रस है। वियोग, करुण, वात्सल्य एवं बीभत्स रस मादि भी सहायक रस के रूप में पाये हैं। कोन ऐसा सहृदय पाठक होगा जो धर्माचार्य पाषाभूति

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