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आचार्यश्री तुलसी की अमर कृतिश्रीकालू उपदेश वाटिका
श्रीमती विद्याविभा,एम० ए०, जे० टी०
सम्पाधिका-नारी समाज, नई दिल्ली
आदि काल से संतों के वचनामृत से मानवता के साथ-साथ साहित्य और संस्कृति भी समृद्ध होती चली पाई है। सूर, तुलसी और कबीर की भाँति प्राचार्य तुलसी ने भी संत-परम्परा की माला में जो अनमोल मोती पिरोये हैं 'श्रीकालू उपदेश वाटिका' उनमें से एक है । ग्यारह वर्ष की आयु से ही प्राचार्य तुलसी ने अपने गुरु श्रीकालगणी के चरणों में बैठ-बैठकर उनकी 'हीरां तोली बोली' में जो सीख ग्रहण की, उसी धरोहर को उन्होंने 'श्रीकाल उपदेश वाटिका' के रूप में जनता-जनार्दन को सौंप दिया है । वैसे तो प्राचार्य तुलसी भारत की प्राग-ऐतिहासिक जैन-परम्परा के अनुयायी संत हैं, परन्तु इस वाटिका में जिन उपदेश सुमनों का चयन हुमा है, उनकी सुगन्ध सर्वव्यापी है। इस प्रकार प्राचार्य तुलसी केवल जैन-परम्परा के ही संत नहीं, भारत की संत-परम्परा के कीर्ति स्तम्भ हैं। जहाँ उन्होंने भक्ति के गीत गाए हैं और जन-हित के लिए उपदेश दिये हैं, वहाँ उनमें साहित्य-सृजन की भी विलक्षण प्रतिभा है।
प्राचार्य तुलसी की कृतियों में भाषा भावों के साथ बही है। प्रावश्यकतानुसार उन्होंने विभिन्न भाषामों के शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा भी है तो भाषा में एकरूपता लाने के लिए। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी; इन तीन भाषामों में रचना की है। 'श्रीकाल उपदेश वाटिका' की भाषा राजस्थानी है। आचार्य तुलसी को संस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी में से किस भाषा पर विशेष अधिकार है, यह कहना कठिन है। प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' ने उचित ही लिखा है कि 'आचार्यश्री तुलसी के लिए संस्कृत अधीत और अधिकृत भाषा है। राजस्थानी उनकी मातृभाषा है और हिन्दी मातृभाषावत् है'। संभवतः इसी समानाधिकार के कारण श्रीकालू उपदेश वाटिका' में इन तीनों भाषामों का कहीं-कहीं जो मिश्रण हुमा है, वह स्वाभाविक बन पड़ा है। प्राचार्यश्री ने उसकी प्रशस्ति में निम्न पंक्तियाँ लिखकर उस मिश्रण को और भी स्पष्ट कर दिया है:
सम्बत एक ला फागण मास जो, सारी पहली परमेष्ठी पंचक रथ्यो। समै समं फिर चलतो चल्यो प्रयास जो, सो 'उपदेश बाटिका' रो हांचो जच्यो।
पर प्राचीन पद्धति रे अनुसार जो, भावा बणी भंग पावल री बोचड़ी। पापिस देख्या एक-एक कर द्वार जो,
तो प्रहरी बोली मिमित बैठी-साड़ी। प्राचार्य तुलसी को अपनी भाषा जहाँ 'मंग चावल री खीचड़ी' के रूप में प्रखरी है, वहाँ उसने ऐसे पाठकों का कार्य सुगम बना दिया है जो राजस्थानी नहीं समझते। भाषा की ऐसी खिचड़ी मीराबाई के राजस्थानी भक्ति-पदों में भी