Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 219
________________ संघीय प्रावारणा की दिशा में मुनिश्री सुमेरमलजी 'सुदर्शन' जिस प्रकार अाजकल डायरी का स्थान साहित्य जगत् में महत्त्व पूर्ण बन गया है, उसी प्रकार पत्रों ने भी साहित्य क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है। इसीलिए आजकल लोग बड़े साहित्यकारों व महापुरुषों के पत्र बड़े चाव से पढते है। पत्र स्वाभाविकता से भरा रहता है, अतः उसमें अपनी विशेषता होती है। वह दूर बैठे व्यक्ति को मौहार्द के धागे मे पिरोए रखता है। उसमें लेखक का निश्छल हृदय और उनके दूसरों के प्रति विचार बड़ी स्पष्टता में निकलते है, जिसमे पाठक पर अनायास ही असर पड़े बिना नहीं रहता। तेरापंथ के प्राचार्यों में भी पत्र देने की परम्परा रही है, परन्तु उनकी संख्या बहुत कम है। क्योंकि जैन माध गृहस्थों के साथ व डाक द्वारा पत्र व्यवहार नहीं करते। इस कारण पत्र बहुत कम दिये जाते हैं। जो अत्यावश्यक पत्र संघ के माधु-साध्वियों को दिये जाते हैं, वे उसी स्थिति में दिये जाते है जबकि कोई मघ का माध-माध्वी वहाँ तक पहुँचा सके । आचार्य भिक्ष ने अपने संघ की माध्वियों को, अनुशासन के प्रश्न को लेकर पत्र दिये हैं, जिसमें हम उस समय के संघ की स्थिति का कुछ इतिहास मिलता है। तृतीय प्राचार्य श्रीमद् रायचन्दजी ने अपने भावी उत्तराधिकारी को पत्र दिया है जिसमें उनके (जयाचार्य के) प्रति बड़े मार्मिक उद्गार प्रगट हुए है । इस प्रकार आचार्यों ने अपने संघ के साधुमाध्वियों को विभिन्न परिस्थितियो में पत्र दिये है जो आज हमारे लिए इतिहास के अंग बन गये हैं। तेरापंथ माध समाज का विस्तार जितना प्राचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व में हुआ, उतना पिछले पाचायों के समय नहीं हुआ । इमलिए उनके दायित्वों का विस्तार भी हो गया। अनेक आन्तरिक कार्य उनको पत्रों द्वारा करने पड़ते है। इसलिए अन्य प्राचार्यों की अपेक्षा प्राचार्यश्री के पत्रों की संख्या अधिक है। उनके पत्रों में तेरापंथ की प्रान्तरिक स्थिति का चित्रण पाठकों को मिलेगा। इसके अलावा माधु-साध्वियों के प्रति उनकी वत्सलता का सजीव भाव । इसमे भी महत्त्वपूर्ण बात है उनके हृदय की आवाज कि वे किस प्रकार आज के जमाने में संघ को फला-फुला देखना चाहते हैं। उनका अदम्य उत्साह, कार्य करने की अजस्र धन, विरोधों को सहने की अटूट शक्ति, देशाटन करने की प्रवल भावना, कर्तव्य-परायणता आदि अनेक हृदय को कूने वाली घटनाएं हैं। प्राचार्यश्री को पदारूढ़ हुए पच्चीस वर्ष सम्पन्न हो गये हैं । इस दीर्घ अवधि में उन्होंने माधु-साध्वियों को अनेक पत्र दिये हैं। उनमें सर्व प्रथम सती छोगांजी को दिया हा पत्र है, जो उन्होंने पदासीन होते हए ही लिखा था। सती छोगांजी अष्टम प्राचार्य कालगणी की संसार पक्षीय माता थीं। उसने अपने पुत्र काल के साथ ही दीक्षा ली थी । वृद्धावस्था के कारण उनमे चला नहीं जाता इसलिए वे कई वर्षों से वीदासर में स्थिरवास किये हुए थी। कालूगणी का स्वर्गवास सं० १९६३ भाद्रव शुक्ला ६ को हुआ। भाद्रव शुक्ला ६ को बाईस वर्ष की अवस्था में प्राचार्यश्री तुलसी पदासीन हुए। चातुर्मास के बाद माध्वियों के एक सिंघाड़े के साथ छोगांजी को प्राचार्यश्री ने एक पत्र लिखकर भेजा।' ॐनमः ! छोगाजी संघणी-घणी सुखमाता बंचे। थे चित्त में घणी-घणी समाधि राखज्यो और अठं सत्या चानाजी आदी १प्राचार्यश्री ने अधिकांश पत्र मारवाड़ी में ही लिखे थे।

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