Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 290
________________ २७६] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य [ प्रथम मेरी मेरी कर मरे सभी, कोई भी अपना सका नहीं। बंभव-साम्राज्य अखाड़े में, सोचो तो कितने ही उतरे, जो हारे थे तो हारे हो, जीते उनकी भी हार परे!' इस प्रकार संसार एक निस्सार स्थान है जहाँ निवास करना तथा जिसमें संलग्न मन होना बुद्धिमत्ता नहीं है, इसीलिए ऋषियों ने संसार को हेय बता कर कम-से-कम जीवन की अन्तिम स्थिति में संन्यास लेना परमावश्यक कहा है। घोर युद्ध के पश्चात् देवों द्वारा प्रतिबोधित होकर स्वयं बाहुबली भो संसार की निस्सारता को इस प्रकार उद्घोषित करते हैं कोई सार नहीं संसार में, पग-पग पर बुविधा की है तलवार दुधारी रे। __क्षण में सरस-विरस होता, यहाँ नश्वर घन-बाया सो सत्ता विभुता सारी रे। इसी प्रकार अन्त में भरत ने भी संसार की नश्वरता को जाना, जिसके परिणामस्वरूप वे संसार से विरक्त होकर मुक्ति के अधिकारी बने प्रत्येक वस्तु में नश्वरता को झलक प्रतिक्षण भांक रहे, इस जीवन को क्षण-भंगुरता अंजलि-जल सी वे प्रांक रहे। यों चिन्तन करते विविध, जागृत हुमा विराग। जीत लिया नश्वर जगत, ज्यों पानी के झाग ॥ इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर इस काव्य का निर्माण हुआ है। इस तथ्य के ज्ञान-प्रकाश में हृदय जिस मावभूमि पर अवस्थित होता है, उसी का चित्रग अन्ततोगत्वा इस काव्य में हुआ है। अतः इसका भावपक्ष बड़ा ही समुज्ज्वल है। यदि यों कहें कि इसमें मानव के मन-मानस में विद्यमान विविध भावावली में से केवल सदभाव-मुक्तामों का ही प्राधान्य है तो प्रत्युक्ति न होगी। इसमें कलापक्ष भी प्रायः मनोहारी है । रस काव्य की आत्मा होती है। इसके अनुसार यह काव्य भी रसाप्लुत है। इसमें शान्त रस ही अंगीरस है, क्योंकि संसार विरवित हो इसका उद्देश्य है। अतएव भगवान् ऋषभदेव तथा उनके पुत्र इस संसार को प्रसार समझ कर इससे विमुख हो गये। उपर्युक्त अवतरण इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं। शान्त का चित्रण करते हुए सभी पद्यों में तदपेक्षित माधुर्य गुण का अंकन भी दर्शनीय है। तदनुकूल वर्ण-चयन एवं शब्द-योजना मणिकाञ्चन के तुल्य ही मनोरम है । शान्त के अतिरिक्त वीर रस का चित्रण भी भरत एवं बाहुबली के युद्ध में पर्याप्त मात्रा में हमा है। निम्न पंक्तियों में वीरता का सजीव चित्रण कितना प्रोजपूर्ण है १ भरत-मुक्ति, पृष्ठ ४७ २ वही, पृष्ठ १५८ ३ वही, पृष्ठ १६० ४ वही, पृष्ठ १६२

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