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समय अरण्य की भयानकता इस प्रकार अंकित हुई है
गहरी गहरी पड़ी बरारें, चारों ओर झाड़-बाड़, द्विव यू विधाड़ रहें हैं, दोर रहे हैं कहीं बहा चीते, व्याघ्र, भेड़िये भालू, बनबिलाव, सूघर बार,
घूम रहें है गंडे, रोके, परव्य-महिष, सारंग, सियार ।'
इस प्रकार रसों का चित्रण तदनुकूल गुणों के साथ बड़ी ही उपयुक्तता के साथ हुआ है।
यमक
इस काव्य में अलंकार योजना भी स्तुत्य है। शब्दालंकारों में धनुप्रास का व्यवहार तो पर्याप्त मात्रा में हुआ है, परन्तु यमकादि का प्रयोग बहुत ही कम है। इसी प्रकार अर्थालंकारों में विशेषतः उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा का प्रयोग अत्यधिक है। नीचे कुछ सुन्दर उदाहरण दिये जाते हैं
अनुप्रास -
पुनरुषितवदाभास
उपमा
प्राचार्यथी तुलसी अभिनन्दनम्
रूपक
उत्प्रेक्षा
धमल, प्रविकल, अतुल, अविरल प्राप्त कर तुलसी उजारा ।
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म लाल कराल काल-सा बढ़ने लगा सरोष।
सम समय परीषह मुनि को अधिक नहीं है।
मधु मधु बरसाकर सबको मुदित बनाता ।
उषा समय प्राची यथा उभय कोष से लाल ।
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विकसित वसन्त क्यों सन्त हृदय सरसाता ।
आज हमारे मन उपवन की फूली क्यारी क्यारी, चित चातक है उत्फुल्ल देखकर हाल मेघ-विताम रे ।
स्वर्णिम सूर्य उदित है प्रमुदित नयनाम्बुस विकाने, मानो और सिन्धु लहराता पाया प्यास बुझाने ।
[ प्रथम
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जल सोकर जिन पर चमक रहे
मानो मुक्ताफल दम रहे।
इसी प्रकार और भी अनेक अलंकारों की छटा यत्र-तत्र छिटकी हुई है, जिसने काव्य के सौन्दर्य पर चार चाँद
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लगा दिये हैं।
सम्ब योजना भी दृष्टव्य है। इसमें गीतक, दोहा, सोरठा, मुक्तक एवं हरिगीतिका धादि छन्दों का भारु प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं कुछ दोष भी दृष्टिगोचर होते हैं, यथा
और महामाता विराजित हस्ती पर सानन्य है ।
यह गीतक छन्द का अंश है, जिसमें २६ मात्राएं होनी चाहिए, परन्तु इसमें २८ मात्राएं हैं अतः अधिक पदत्व दोष
१ भरत-मुक्ति, पृष्ठ १६३