Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 283
________________ बीकालू यशोषिलास [ २६६ इसी समय तेरापंथ के पंचम प्राचार्यश्री मपवागणी का सरदार शहर में चातुर्मास हुमा और मा, मासी प्रादि के साथ जाकर कालगणी ने उनके दर्शन किये। श्री कालूगणी की प्राकृति मादि से श्री मघवागणी इतने प्रभावित हए कि वे तदनन्तर उन्हें न भूले । संवत् १६४४ की पाश्विन शुक्ल तृतीया के दिन स्वाति नक्षत्र में खूब बाजे गाजे के साथ बीदासर में उनकी दीक्षा हुई। गुरु के साथ उन्होंने अनेक स्थानों में विहार किया। संवत् १६४६ में मघवागणी का शरीर अस्वस्थ हुमा । कालूरामजी की प्रायु उस समय छोटी थी। इसलिए मघवागणी ने चैत्र कृष्ण द्वितीया के दिन श्री माणिकगणी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया । पंचमी के दिन श्री मघवागणी का स्वर्गवास हा। श्री कालगणी को इममे महान् दुःख हुआ। संवत् १९४६ की चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन माणिकगणी पट्टाधिकारी बने। श्री कालगणी ने उनकी समुचित मेवा की । संवत् १६५३ के आश्विन मास में श्री माणिकगणी का शरीर रुग्ण हुमा, किन्तु कर्तव्यनिष्ठ गगीजी ने इस पर कुछ ध्यान न दिया और कार्तिक कृष्णा तृतीया के दिन प्रसार संसार का त्याग कर दिया। चतुर्विध संघ ने मिलजल कर श्री डालिमगणी को संघपति बनाया। श्री डालिमगणीजी की सेवा में रहते हुए श्री कालूगणी ने अनेक स्थानों पर अपने प्रभावी व्याख्यानों से लोगों को रंजित किया। इस समय इन्होंने बगड़ के पं० घनश्यामजी से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया और हेम कोष-अभिधान चिन्तामणि, उत्तराध्ययन एवं नन्दी (सूत्र) आदि को कण्ठस्थ किया। बारह वर्ष तक कालगणी ने श्री डालगणी की सेवा की। १६६४ में डालगणी चन्देरी पहुँचे। वहीं वे अस्वस्थ हो गये। सं० १९६६ की भाद्रपद शुक्ला द्वादशी के दिन स्वर्गत हाए। संघ ने श्री कालूगणी को सिंहासन पर बैठाया। श्री डालगणी के सम्वन् १९६६ प्रथम श्रावण वदी १ के पत्र मे भी उन्हें यही मम्मति मिली। भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा के दिन कालगणी जी का पाटोत्सव चन्देरी नगर में हुआ। इन्होंने प्रथम याम मे उत्तराध्ययन का और रात्रि के समय रामचरित का व्याख्यान किया। चन्देरी के बाद अनेक स्थानों में विहार कर कालजी ने लोगों को उपदेश दिया और दीक्षित किया। द्वितीय इल्लास का प्रारम्भ श्री महावीर स्वामी के स्मरण से है। सम्वत् १९६८ में कालुगणी ने बीदासर में चातुर्मास किया और अनेक योग्य साघु और साध्वियों को दीक्षित किया। १६६६ का चातुर्माम चूरू में और १९७० का चन्देरीमें हुअा। यहीं से ये बीकानेर में धर्म की प्रभावना के लिए पहुँचे । राज्य के बड़े-बड़े सरदारों और उच्च राज्य कर्मचारियों ने इनके दर्शन किये और अनेक दीक्षाएं हुई। इन्हीं दिनों जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान्, जैन शास्त्र के महान् पण्डित और अनेक जन धर्म-ग्रन्थों के अनुवादक डा० हर्मन याकोबी भारत पहुंचे और लाडनूं में श्री कालूगणी के दर्शनार्थ आये। श्री कालूगणी ने याकोबी महोदय के अनेक सन्देह स्थलों की इतनी विशद व्याख्या की कि उस विद्वान् का हृदय कृतज्ञता से पूर्ण हो गया और उसे यह भी निश्चय हो गया कि तेरापंथ ही जैन धर्म का सच्चा स्वरूप है। जूनागढ़ में जाकर भरी सभा में याकोबी महोदय ने यह भी घोषित किया कि प्राचारांग के अन्तर्गत मत्स्य और मांस का अर्थ उसने सम्यक् रूप से कालगणीजी से ही समझा है। इसी अवसर पर जोधपुर राज्य ने नाबालिगों की दीक्षा पर प्रतिबन्ध लगाया और २१ मार्च सन् १९१४ के गजट में ऐसी दीक्षा के विरुद्ध अपनी प्रज्ञा प्रसारित की। तेरापंथ के युक्ति युक्त विरोध के कारण यह आज्ञा कैन्सिल (रद्द) की गई। यू० पी० काउंसिल ने भी नाबालिगों की दीक्षा को रोकने के लिए प्रस्ताव पास किया और कानून तयार करने के लिए पाठ सदस्यों की एक कमेटी नियुक्त की। श्री कालूगणी से आशीर्वाद प्राप्त कर तेरापंथ के गणमान्य सज्जन इलाहाबाद पहुंचे और अपनी युक्तियां दीं। इतने में यूरोप का प्रथम महायुद्ध छिड़ गया और प्रस्ताव बीच में ही लटक गया। यू०पी० में कानून के प्रस्तावक ला० सुखबीरसिंह जब दिल्ली काउंसिल के मेम्बर बने तो वहाँ भी यह प्रश्न उठा। तेरापंथी धर्मवीरों के प्रयास से यह बिल पास न हुमा। चित्तौड़ में श्री कालगणी ने अमल के कांटे के अफसर को प्रबोधित किया । भगवती सूत्र के अाधार पर वहां यह भी सिद्ध किया कि जीव के नाम तेईस हैं। इसी प्रकार रायपुर में पाचारांग से उद्धरण देकर उन्होंने दया का ठीक स्वरूप

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