Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 287
________________ भीकालू यशोविलास [ २७३ यह पृथ्वी पत्यन्त मनोहारी होती, यदि यहाँ बहुत जोर की धूप और प्राधीन होती। कोई अन्य कवि होता तो कवित्व के बहाव में बह कर मरुस्थल की प्रशंसा ही प्रशंसा कर बैठता। स्वाति नक्षत्र में दीक्षित श्रीकालूगणी के गुरुदेव के कर की शुक्ति से और स्वयं श्रीकालगणी की इस स्वाति नक्षत्र में उत्पन्न उस मोती से उपमा दी है जो लाखों मनुष्यों के सिर पर चढ़ेगा और जिसकी चमक दिन-दिन बढ़ेगी। ऐसी ही दूसरी उपमा में कवि ने श्रीकालूगणी की माता के उदर को खान से, गुरु के हाथ को साण, जैन शासन को मुकट और श्रीकालुगणी को हीरे से उपमित किया है। गुरु के प्रति तुलसीजी का इतना अनुराग है कि काव्य में एक के बाद अनेक उपमाओं की झड़ी-सी लग गई है। पहले उल्लास की सातवीं ढाल में विपक्षियों के मनोमोदकों का भी अच्छा वर्णन है। दूसरे उल्लास की बारहवीं ढाल में प्राजकल की स्थिति का निदर्शन कवि ने गुरुमुख से इन शब्दों में किया है कोई चव माना काण टाण तोहि रुपियो वरसावं। घर में खाचा ताण बाहर जई मंछा बल बाव।। कोई है कंगाल हाल तोहि मगहरी में नहि मावं। सन्धि प्ररु षट लिग लिग अनजाने कवि पावै ।। कोई झूठमूठ इक झूठ पहि ज पसारी बन जाये। देखे सुने अनेक छक कोई विरलो हो पाये। भिवानी में गोले की वर्षा का वर्णन प्रांखों के सामने पूरा दृश्य खड़ा कर देता है । सोलहवीं ढाल का प्रात्मशुद्धि विषयक उपदेश भी अपनी निजी छटा रखता है। तृतीय उल्लास में प्राचार्य तुलसी ने अपनी दीक्षा से पूर्व का हास्याद्भुत रसधार युक्त अच्छा वर्णन दिया है । गुरु-विषयक ये उपमाएं भी अपनी उक्ति विशेष के कारण हृदयहारिणी हैं सभा सभ्यजन संभता, यथा चित्र प्रालेख । सयल श्रोतगण श्रषण हित, भरवण प्रवण विशेष ॥ सुधा झरे मुख निर्भरे, बवि चकोर अनिमेष । वासर में हिमकर रमे, वा छोगांगज एष। निरख विपक्षी नयन में, प्रमिला तणों प्रवेश । पासर में हिमकर रमे, वा छोगांगज एष । मास्य कमल मुकुलित समल, प्रसहन जना प्रशेष । वासर में हिमकर रमै, वा छोगांगज एष। उच्चस्वर गणिवर यदा, पाठ पढ्यो मुख जोर। भषिक मोर प्रमुदित भया, लखि सावन घन घोर ॥ चतुर्थ उल्लास में १६६१ को जोधपुर के चातुर्मास का निम्नलिखित वर्णन भी पठनीय है - गत विरहा महधरधरा, पूज्य पदार्पण पेछ। नवनवांकुरोग्दम विषम, रोमोग्दम सम लेख ॥ पुह पतती करती नती, माती भई प्रतीव । मधुकर गुंजारव मिर्ष, मंगल गीत व तीव ।। इसके अतिरिक्त काव्य अनेक मार्मिक स्थलों से परिपूर्ण है। श्रीकालगणी की बीमारी, अस्वास्थ्य में भी उनका धैर्य और जैन धर्मानुसार कार्य-कलाप एवं अन्तिम शिक्षादि का वर्णन काव्य और धर्म कथा दोनों ही के रूप में प्रशस्य और प्रध्येय है। समय के प्रभाव से इतना ही लिखकर विराम करना पड़ रहा है। सहृदय पाठकगण 'श्रीकालू यशोविलास' रूपी रत्नाकर से अनेक अन्य अनर्ष काव्य मुक्तामों और मणियों की प्राप्ति कर सकते हैं। 'श्रीकाल यशोविलास' को इतिहास-ग्रन्थ रूप में प्रस्तुत किया है। प्राचार्य तुलसी ने गुरु के गुगों का अवश्य

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