Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 276
________________ २६२ ] प्राचार्यश्री तुलसी अभिनन्दन अन्य [प्रथम सुनती जब सुत का किञ्चित् दुःख, पीला पड़ जाता उस का मुख, उसकी उद्वेलित प्रात्मा को मैं तुम्हें दिखाने पाया हूँ। 'अग्नि-परीक्षा' के अनेक पृष्ठ परित्यक्ता सीता के प्रासुमों से गीले है। मीता के विरह-वर्णन में केवल पतिवियोग जन्य वेदना की ही अभिव्यंजना नहीं है, अपने सतीत्व पर किए गए सन्देह की चुभन, नारीत्व के अपमान की कसक और पति के द्वारा दी गई प्रवंचना की प्राणान्तक पीड़ा का भी समावेश है। गर्भवती अवस्था मे सिंहनाद-वन मे नितान्त निराश्रय छोड़े जाने पर उसके सम्मुख सबसे पहले तो कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? की समस्या आ उपस्थित हुई होगी : अम्बर से में गिरी हाय ! अब नहीं झेलती धरती, टुकड़े-टुकड़े हाय हो रहा, रो-रो माहें भरती। सीता के करुण क्रन्दन में जीवन के कुछ ऐसे करुण और कठोर सत्य प्रकट हुए हैं, जो मर्यादा पुरुषोत्तम के इस कर्म को अमर्यादित सिद्ध करते हुए प्रतीत होते हैं : यदि कुछ ममत्व मन में होता करते न कभी विश्वासघात, क्यों हाथ पकड़ कर लाए थे, जो निभा न सकते नाथ ! साथ । सीता के वेदनामय उद्गारों में एक प्रकार की विदग्धता है, जो केवल हमे भावोलिन ही नहीं करती, विचारोतेजित भी करती है। राम की संकटापन्न एवं द्विधाग्रस्त मनःस्थिति को भी कवि ने लक्ष्य किया है। बड़े गम्भीर अन्तद्वन्द्व और विचार-मन्थन के पश्चात् (यद्यपि 'अग्नि-परीक्षा में उसका साङ्केतिक वर्णन ही हुआ है) राम सीता का परित्याग करने के लिए प्रस्तुत होते हैं। किन्तु राघव का हृदय पान्दोलनों से था भरा, घूमता भाकाश ऊपर, घूमती नीचे धरा । सीता अगर सिंहनाद-चन को अपने कुहरी के से करुण क्रन्दन से विह्वल कर रही थी, तो राम के लिए भी अयोध्या का सुख-शयनागार कण्टक-वन बन गया था । तुलसी के राम अपहृता सीता का पता खग, मग और मधुकर-श्रेणी से पूछ सकते थे, परन्तु अपनी ही प्राज्ञा से सीता को निष्कासित करने वाले राम उसका पता किससे पूछते ? राम सीता को अयोध्या के राजमहलों से निकाल कर भी उसे अपने हृदय में नहीं निकाल सके । सीता के वियोग में राम को: लगते फोके सरस स्वाद पकवान भी, कुसुम सुकोमल शय्या तोखे तीर-सो, नहीं सुहाते सुखकर मदु परिधान भी, मलयानिल भी दाखव प्रलय-समीर-सी। अन्ततः राम और सीता का मिलन होता है-उनके मंगजात लवणांकुश के प्रबल पराक्रम से ! सीता माता के ये पुत्र अपने बाहु-बल के दीप्त प्रकाश में राम के संशयाच्छन्न नेत्रों को निमीलित करते हैं। राम और लक्ष्मण की सेना के रक्त-प्रवाह द्वारा वे अपनी माता पर अकारण लगाई गई कलंक-कालिमा को धो डालते हैं । नारद के मुख से अपनी माता के अपमान की कथा के श्रवण मात्र से उनका खून खौलने लगता है। है कहाँ अयोध्या ? राम कहाँ ? माता के द्वारा बारबार समझाए जाने पर भी उनके आक्रोश का उत्ताल बेग शान्त नहीं होता। अपनी माता के अपमान का प्रतिकार करने के लिए वे अयोध्या पर आक्रमण कर ही देते हैं। प्रारम्भ में राम और लक्ष्मण इस युद्ध को बाल-लीला समझ कर गम्भीरता से नहीं लेते। परन्तु लवणांकश की भयंकर मार-काट को देख कर उनको भी लड़ने के लिए प्रस्तुत होना पड़ता है। युद्ध-वर्णन में भी प्राचार्यश्री तुलसी ने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रशस्त परिचय दिया है। रणोद्यत राम का रौद्र रूप द्रष्टव्य है:

Loading...

Page Navigation
1 ... 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303