Book Title: Aacharya Shri Tulsi Abhinandan Granth
Author(s): Tulsi Acharya, Dhaval Samaroh Samiti
Publisher: Acharya Tulsi Dhaval Samaroh Samiti

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Page 228
________________ २१४ ] प्राचार्यश्री तुलसी मभिनन्दन प्रस्य गुरुदेव ने फरमाया, तुलसी ! नीचे हरियाली है। मैंने सहसा उत्तर दे दिया, मैं ध्यान रख लूंगा। पर चला उसी मार्ग पर। धीरे-धीरे व सावधानीपूर्वक चलने पर भी धूली कण हरियाली पर आ गये । गुरुदेव ने मीठा उलाहना देते हुए कहा, "देख, रेत हरियाली पर पा गई न ? मैने कहा था न ? 'दो परठण दण्ड'। मेरा मुंह छोटा-सा हो गया। स्थान पर पाने के पश्चात् मैंने विनम्र शब्दों में त्रुटि की क्षमा चाही। समुद्र के समान गम्भीर गुरुदेव ने सजा माफ कर दी । सजा तो माफ हो गई, पर वह शिक्षा माफ नहीं हुई। आज भी स्मृति को सग्स बना रही है। तारे गिन के प्रायो रात्रि का समय था । तारे झिलमिल-झिलमिल कर धरती पर झांक रहे थे। उस समय मेरी अवस्था सत्रह वर्ष की होगी। नींद अधिक पाना स्वाभाविक ही था। कालगणी शिवराजजी स्वामी को प्रादेश देते, जानो तुलसी को उठा लामो। वे मुझे उठा जाते। मैं कभी-कभी नींद में ही, हाँ पाता हूँ, कहकर पुनः सो जाता। आप फिर कहते--तुलसी आया नहीं। जामो, इस बार उसे साथ लेकर आयो। मैं साथ-साथ चला पाता। फिर भी स्वाध्याय, चिन्तन करते-करते मुझे नींद आ ही जाती। पाप उस समय बड़े ही मीठे शब्दों में मनोवैज्ञानिक ढंग से नींद उड़ाने के लिए कहते-तुलसी, जाप्रो प्राकाश के तारे गिन कर पायो, तारे कितने हैं ? सजग होने पर पुनः ज्ञानामृत पिलाते। इस प्रकार गुरुदेव ने प्रशिक्षण देकर मेरे जैसे बिन्दु को सिन्धु बना दिया । गुरु हों तो वस्तुतः ऐसे ही हों। टूटे हृदयों का मिलन ६ दिसम्बर, १९६१ को अहिंसा प्रतिष्ठायो तत्सन्निधौ वर त्यागः पातंजल योग सूत्र के इस वाक्य को प्रत्यक्ष होते हुए देखा जब कि प्राचार्यश्री तुलसी के एक स्वल्प कालीन प्रयास से इक्कीस वर्ष से पिता और पुत्र के टूटे हृदय का मधुर मिलन हुना। घटना इस प्रकार थी। कानोडवासी श्री देवीलालजी बाबेल और उनके पुत्र वकील श्री गजमलजी बाबेल में कुछ लेन-देन व बटवारे को लेकर इक्कीस वर्ष से बोल-चाल,खान-पान, मेल-जोल आदि पारस्परिक व्यवहार सर्वथा बन्द थे। इस बीच अनेकों अवांच्छनीय घटनाएं न चाहते हुए भी हो गई। सहसा संयोगवश प्राचार्य प्रवर का उनके घर पर पदार्पण हुआ। आचार्यश्री उस परिस्थिति में परिचित थे, अतः दोनों को परस्पर वैमनस्य का त्याग कर शान्ति मे जीवन व्यतीत करने का सदपदेश दिया। उस उपदेश से दोनों का हृदय बदल गया। एक-दूसरे ने परस्पर क्षमा याचना की। पुत्र ने पिता के चरण छुए और पिता ने पुत्र को हृदय से लगाया। जनता ने यह स्पष्ट देखा कि जिस समस्या को सुलझाने के लिए पंच, सरपंच, न्यायाधीश असफल रहे, वह ममस्या क्षण में ही मुलझ गई। निश्चल मन और प्रात्म-दर्शन पांच नदियों के संगम स्थल पंजाब की भूमि को नापते हुए प्राचार्यश्री तुलसी ने एक दिन भाखड़ा-नांगल में निकलने वाली नहर पर विश्राम किया। शिष्य मंडली के साथ, जिसमे मैं भी उपस्थित था, आचार्यश्री तुलसी शान्त सुधारम की गीतिका का मधुर गायन करने में तल्लीन हो गए। नयन खुलते ही नहर के चलते हुए जल-प्रवाह की ओर ध्यान गया । चलते हुए जल मे अपना प्रतिबिम्ब दिखाई नहीं देता था। तत्क्षण प्रात्म-दर्शन की गहन चर्चा में निमज्जन करते हुए प्राचार्यप्रवर ने कहा-जिस प्रकार चलते हुए मैले जल-प्रवाह में अपने तन का प्रतिबिम्ब नही दीखता, ठीक उसी प्रकार ही चलित मैले मन में भी प्रात्म-दर्शन नहीं होता। स्वरूप-दर्शन तो निश्चल और निर्मल मन से ही होता है। न हमारे जेब है और न मठ । आदिवासियों के बीच प्राचार्यप्रवर प्रवचन कर चुके थे। प्रवचन के बाद एक पन्द्रह वर्षीय भील बालक पाया और कहने लगा-दारू-मांस का परित्याग करवा दीजिए। आचार्यश्री ने परित्याग करवा दिये। उसने वन्दन किया और चुपचाप एक चवन्नी भाचार्यश्री की पलथी पर रख कर एक कोने में बैठ गया। प्राचार्यश्री अपनी साहित्य-साधना में

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